श्री रामचरित मानस का प्रारम्भ मंगलाचरण से होता है। सफलता पाने के लिए ग्रंथ के प्रारम्भ की प्रार्थना रूपी प्रस्तावना मंगलाचरण कहलाती है।‘रामचरितमानस’ के प्रथम सोपान के मंगलाचरण को मात्र मात्र पाठ तक सीमित न रखते हुए उसे अपने आचरण से जोड़ने का प्रयास किया जाना चाहिए। मंगल+आचरण= मंगलाचरण, अर्थात् शुभ आचरण। आचरण की शुभता अथवा अशुभता का सम्बंध हमारी संगति से है। हमारी संगति यदि शुभ है तो अच्छे संस्कार बनेंगे और आचरण शुभ होगा तथा यदि कुसंगती है तो आचरण भी उसी के अनुसार ही होगा। संगति का आधार श्रद्धा होती है। श्रद्धा का अर्थ है – शास्त्रों में, गुरूवाक्यों में अथवा श्रेष्ठों में सत्यत्व बुद्धि रखना और वैसा हो जाने की अभिलाषा करना। आचरण में मन, वचन और कर्म तीनों की क्रियाएँ सम्मिलित होती है, तीनों की एकता होती है। अब, यह कहा गया है – ‘देवो भूत्वा देवं यजेत्’। देव होकर देव का यजन करना चाहिए। जो देवता या श्रेष्ठ विभूति जिस गुण का अधिष्ठाता अथवा आगार है उसके उस गुण को अपने में अंगीकार करने और विकसित कसने के लिए उस देवता अथवा उस विभूति से तादात्म्य करना होगा। इसमें आशय यह है कि हमें अपने माध्यम से देवता के उस गुण का जितना हो सकता है उतना आगे विस्तार करना है तभी वह देवता हममें हमारी आवश्यकता के अनुसार उस गुण को और बढ़ा देंगें अर्थात देवता का लाभ हमें तभी मिल पाएगा जब उसके गुणों द्वारा, अपने माध्यम से हम अन्यों को लाभ देंगे। यही ‘देवो भूत्वा देवं यजेत्’ का आशय है।
वर्णानामर्थसंघानां रसानां छन्दसामपि।
मंगलानां च कर्त्तारौ वन्दे वाणीविनायकौ॥1॥
मंगलाचरण के प्रथम श्लोक में सर्वप्रथम वाणी (सरस्वतीजी) तथा गणेशजी की वंदना की गयी है। वाणी की अभिव्यक्ति पचास अक्षरों वाली वर्णमाला से होती है। इन्ही पचास वर्णो से भाषा के सम्पूर्ण शब्द बनते हैं जिनके साथ उनके अर्थ जुड़े होते हैं। अर्थों से मन के भावों के अनुसार रसों की उत्पत्ति होती है। इन शब्दों से व्यवहार जगत् चलता है और साहित्य के विशाल भण्डार की भी सृष्टि होती है। काव्य के छंदों की रचना होती है। ‘छंद’ शब्द का एक अर्थ ‘आशय’ भी होता है। अतः सरस्वतीजी को नमन करते हुए यह स्मरण रखें कि हमारी वाणी सार्थक और सदाशयता से युक्त हो। गणेशजी मंगल के कर्ता हैं। उन्हें नमन करते हुए यह भावना होनी चाहिए कि हमारे सब कार्य शुभ कि भावना से युक्त रहें।
भवानीशंकरौ वन्दे श्रद्धाविश्वासरूपिणौ।
याभ्यां विना न पश्यन्ति सिद्धाः स्वान्तःस्थमीश्वरम्॥2॥
मंगलाचरण के दूसरे श्लोक में भवानी-शंकर की वंदना उन्हें श्रद्धा और विश्वास का साक्षात् रूप मानकर की गयी है।श्रद्धा और विश्वास के बिना जीवन के किसी भी व्याहार की कल्पना नहीं की जा सकती। श्रद्धा और विश्वास की सीमा यहाँ तक बता दी गयी है कि सिद्धगण भी इनके बिना अपने अंत:करण स्थित ईश्वर को नहीं देख सकते। अतः ईश्वर के प्राकृतिक विधान में विश्वास और उस विधान का पालन करने वालों के प्रति हममें श्रद्धा का होना आवश्यक है अन्यथा अभीष्ट पथ पर अग्रसर होना सम्भव नहीं होगा।
वन्दे बोधमयं नित्यं गुरुं शंकररूपिणम्।
यमाश्रितो हि वक्रोऽपि चन्द्रः सर्वत्र वन्द्यते॥3॥
मंगलाचरण के तीसरे श्लोक में नित्य गुरु शिव की वंदना की गयी है। उचित-अनुचित, सद-असद, क्या करना चाहिए क्या नहीं करना चाहिए, का बोध सबको जन्म से ही संप्राप्त है और सदा मार्ग दर्शन करता रहता है, हम उसकी माने या नहीं मानें। बोध-स्वरूप नित्य गुरु ही शंकर (कल्याणकारी) है। उनके आश्रित हुआ टेढ़ा चंद्रमा भी सर्वत्र वन्दनीय हो जाता है, अर्थात् विवेक के आश्रय से व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन की विसंगतियों और असामंजस्य की अवस्था में सामंजस्य और संतुलन आता है। विवेक जाग्रत रह कर काम कर सके इसके लिए निरंतर सत्संगति बनी रहनी चाहिए।
सीतारामगुणग्रामपुण्यारण्यविहारिणौ।
वन्दे विशुद्धविज्ञानौ कवीश्वरकपीश्वरौ॥4॥
मंगलाचरण के चौथे श्लोक में विशुद्ध विज्ञान रूप ‘कवीश्वर’ (वाल्मीकि जी) और ‘कपीश्वर’ (हनुमान जी) की वंदना की गयी है। उन्हें विज्ञान रूप इसलिए कहा गया है क्योंकि राम-नाम की महिमा का ज्ञान उनके अनुभव में उतर कर विज्ञान बन गया है। समस्त सृष्टि गुणमयी है।सीता-राम ही गुणरूप में विश्वरूप में सजे हुए हैं (‘सियाराममय सब जग जानी’)/ गुण-रहित अथवा यों कहें कि राम से रहित सृष्टि में कुछ भी नहीं हो सकता।सारा विश्व राम के गुण समूह का पुण्य अरण्य (वन) है। वाल्मीकि जी साहित्य के माध्यम से भगवान के गुण समूहों का बखान कसके उनका प्रचार करते हैं। अतः इनसे यह प्रेरणा मिलती है कि सर्वत्र सबमें गुण दर्शन करने का अभ्यास रखें। राम नाम की सच्ची साधना यही है कि सबमें, गुण रूप से अभिव्यक्त हो रहे राम का दर्शन, स्मरण और कथन का अभ्यास अधिकतम रहे। दोष दर्शन से बचना चाहिए अथवा उसे दूर करने का यत्न करना चाहिए।
उद्भवस्थितिसंहारकारिणीं क्लेशहारिणीम्।
सर्वश्रेयस्करीं सीतां नतोऽहं रामवल्लभाम्॥5॥
पाँचवे श्लोक में रामजी की वल्लभा सीता जी को नमन किया गया है। राम की प्रियतमा सीता जी भगवान की मूल प्रकृति ही हैं जो संसार की उत्पत्ति, पालन और समाहार की कारणभूता हैं। वे स्वभाव से ही क्लेश को क्रमशः कम करते हुए हरने वाली और सब प्रकार से शुभ परिणाम ही देने वाली हैं। अतः हमें हृदय से ऐसी प्रकृति के विधान के साथ, आस्था रखते हुए प्रतिक्षारत रह कर चलना चाहिए।
यन्मायावशवर्ति विश्वमखिलं ब्रह्मादिदेवासुरा
यत्सत्त्वादमृषैव भाति सकलं रज्जौ यथाहेर्भ्रमः।
यत्पादप्लवमेकमेव हि भवाम्भोधेस्तितीर्षावतां
वन्देऽहं तमशेषकारणपरं रामाख्यमीशं हरिम्॥6॥
अब मंगलाचरण के छठे श्लोक में सब कारणों के भी अंतिम कारण, जिनका स्वयं का अन्य कोई कारण नहीं है ऐसे ‘राम’ कहने वाले परब्रह्म की वंदना की गयी है। वे चैतन्य के महासागर हैं और आकाश की भाँति भीतर-बाहर सब ओर व्याप्त हैं। उसी चैतन्य के अस्तित्व से जिस प्रकार अंधेरे में पड़ी रस्सी में सर्प का भ्रम हो जाता है वैसे ही निरंतर अतीत में जाता हुआ, शून्य में जाता हुआ यह जगत् भी सत्य सा लगता है। इस विनाशवान जगत् रूप समुद्र को पार कसने की इच्छा रखने वालों के लिए ‘राम’ के चरण ही एकमात्र नाव है। यहाँ चरण शब्द का तात्पर्य ‘आचरण’ से लेना चाहिए। जीवन पथ पर जिस रीति से चलना होता है, वह है धर्माचरण। उत्तरकांड के ४६वें दोहे की चौथी चौपाई में राम कहते हैं – “ऐहि आचरन बस्य मैं भाई॥” ‘मैं तो भाई इसी आचरण के वश में रहता हूँ’। वह कौनसा आचरण है जिसके वशमें राम रहते हैं? यदि हम श्रेयस् चाहते हैं तो हमें भी वही अपनाना होगा, वही संसार सागर को पार करने वाली एकमात्र नौका है। धर्म को चार चरणों वाला कहा गया है। इन चार चरणों को अलग-अलग ग्रंथों में अलग अलग नामों से कहा गया है जिसका आशय समान ही है। यहाँ उन्हें सत्संगति, भक्ति (समर्पण), पुण्यकर्म और शंकर की भक्ति के रूप में बताया गया है। पुण्यकर्म के सम्बंध में राम कहते हैं कि जगत् में एक ही पुण्य होता है, दूसरा नहीं और वह है मन, वचन और कर्म से विप्र (जिसका जीवन/आचरण विशेष रूप से प्रकृष्ट है) का सेवन करते हुए उसका तादात्म्य प्राप्त करना और उनके ‘पद’ (स्थिति) को प्राप्त कर लेना। शंकर भजन की बात रूपात्मकता से कही गयी है जिसका अभिप्राय है कि सत्संगति, भक्ति (समर्पण) और पुण्यकर्म (तप) को आसक्ति और फल को छोड़ते हुए करने हैं। शंकर ही आसक्ति और फल त्याग रूप समत्वया सहिष्णुता की मूर्ति हैं। शिवतत्व (आसक्ति और फल त्याग) की उपासना के बिना विष्णुतत्व (सत्संग, भक्ति और पुण्यकर्म द्वारा) उपासना का लाभ नहीं होगा। यहाँ ‘ऐहि आचरन बस्य मैं भाई’ में ‘भाई’ कह कर भगवान राम ने मानो अपनी बात पर अंतिम मुहर लगा दी है। यहाँ यह कहना प्रासंगिक होगा कि श्रीमद्भगवद् गीता में भी भगवान ने ‘निश्चितम्’ कह कर धर्म के इन्ही चार चरणों को अपनाने पर ज़ोर दिया है और अपनी अंतिम मुहर लगा दी है। गीता में ‘निश्चितम्’ शब्द दो स्थानों पर आया है। जब अर्जुन ने भगवान से याचना की कि जो ‘निश्चित’ श्रेय है वही बतायें (गीता अध्याय-२ श्लोक-७)। इस पर गीता के सार रूप पुनर्कथन वाले अठारहवे अध्याय के श्लोक संख्या ५ और ६ में भगवान ने धर्म के चारो चरणों 1. यज्ञ (ज्ञानयज्ञ-सत्संगति), 2. दान (भक्ति-समर्पण), 3. तप (पुण्यकर्म), को नहीं छोड़ने को कहा है तथा इन्हें भी 4. सहिष्णुता (आसक्ति और फल छोड़कर) से करना आवश्यक बताया है और यह कह दिया है कि यही उनका ‘निश्चित’ उत्तम मत है। अतः जीवन में धर्म का पालन ही आचरण है अथवा कहें कि प्राकृतिक विधान के अनुसार चलना है।
नानापुराणनिगमागमसम्मतं यद्
रामायणे निगदितं क्वचिदन्यतोऽपि।
स्वान्तःसुखाय तुलसी रघुनाथगाथा
भाषानिबन्धमतिमंजुलमातनोति॥7॥
मंगलाचरण के अंतिम सातवें श्लोक में तुलसीदासजी स्वयं अपनी बात कह रहे हैं। वे कहते है कि रामायण में उल्लिखित व अन्य स्त्रोतों से प्राप्त तथा पुराणों, वेदों व दर्शनशास्त्र से सम्मत जो रघुनाथ जी की गाथा है, उसे तुलसीदास ने अपने अंतःकरण के सुख के लिए विस्तार से सुंदर भाषा में आबद्ध किया है।
मंगलाचरण को एक और रूप में भी ले सकते हैं- भगवान को साष्टांग प्रणाम के रूप में। साष्टांग प्रणाम आठ अंगों से किया जाने वाला प्रणाम होता है –
जानुभ्यां च तथा पद्भ्यां पाणिभ्यामुरसा धिया।
शिरसा वचसा दृष्ट्या प्रणामोsष्टाङ्ग ईरित:।।
अर्थात घुटनों सहित दोनो पैर, दोनो हाथ, हृदय, ललाट (बुद्धि का स्थान), सिर, वाणी और दृष्टि से किया प्रणाम साष्टाङ्ग प्रणाम कहा जाता है।
नमन् सबसे उत्तम क्रिया है, वह समर्पण का द्योतक है। साष्टांग प्रणाम में पूरा शरीर सम्मिलित होता है जिसका निहितार्थ है – नमनशील रह कर विश्वरूप भगवान की क्रियात्मक सेवा करना।
प्रथम श्लोक के अनुसार वाणी (सरस्वती जी) और गणेश जी का संबंध हमारी वाणी और शुभकार्य करने वाले हाथों से है। द्वितीय श्लोक में भवानी-शंकर का संबंध हमारे नेत्रों से हो जाता है। तृतीय का सम्बंध बुद्धि के स्थान ललाट से है जहाँ बोधमय नित्यगुरु शिव (विवेक) का निवास है। चतुर्थ श्लोक का संबंध घुटनों सहित दोनो पैरों से है, जिसका निहितार्थ है कि सीता राम जी के गुण समूह रूपी वन में विहार (विचरण) करने वाले कवीश्वर और कपीश्वर। पंचम श्लोक का संबंध हृदय (उर) से है। राम की प्रियतमा सीता जी (मूलप्रकृति) हैं। प्रियता हृदय से जुड़ी बात होती है। षष्टम श्लोक का सम्बंध शीर्ष (सिर) से है जो परासत्ता (ब्रह्म) का सहस्रार चक्र में स्थान है। सातवें श्लोक में तुलसीदास जी नें ‘स्वान्तःसुखाय’ कह कर अपने मन को भी सम्मिलित कर लिया क्योंकि सुख का संबंध मन से है। इस प्रकार उन्होंने दोनो अंतःकरणों – बुद्धि और अहं (हृदय) के साथ-साथ तीसरे अंतःकरण, मन का भी समावेश कर लिया।
साष्टांग प्रणाम नमन का प्रतीकात्मक रूप है। मंगलाचरण के अन्य अर्थों के अतिरिक्त उसके इस आनुषंगिक पक्ष पर भी ध्यान दिया जा सकता है।
इस प्रकार मंगलाचरण का अर्थ अपनी भावभूमि के अनुसार करने का प्रयास किया।