श्री रामचरित मानस के प्रथम मंगलाचरण का चरितार्थ

श्री रामचरित मानस का प्रारम्भ मंगलाचरण से होता है। सफलता पाने के लिए ग्रंथ के प्रारम्भ की प्रार्थना रूपी प्रस्तावना मंगलाचरण कहलाती है।‘रामचरितमानस’ के प्रथम सोपान के मंगलाचरण को मात्र मात्र पाठ तक सीमित न रखते हुए उसे अपने आचरण से जोड़ने का प्रयास किया जाना चाहिए। मंगल+आचरण= मंगलाचरण, अर्थात् शुभ आचरण। आचरण की शुभता अथवा अशुभता का सम्बंध हमारी संगति से है। हमारी संगति यदि शुभ है तो अच्छे संस्कार बनेंगे और आचरण शुभ होगा तथा यदि कुसंगती है तो आचरण भी उसी के अनुसार ही होगा। संगति का आधार श्रद्धा होती है। श्रद्धा का अर्थ है – शास्त्रों में, गुरूवाक्यों में अथवा श्रेष्ठों में सत्यत्व बुद्धि रखना और वैसा हो जाने की अभिलाषा करना। आचरण में मन, वचन और कर्म    तीनों की क्रियाएँ सम्मिलित होती है, तीनों की एकता होती है। अब, यह कहा गया है – ‘देवो भूत्वा देवं यजेत्’। देव होकर देव का यजन करना चाहिए। जो देवता या श्रेष्ठ विभूति जिस गुण का अधिष्ठाता अथवा आगार है उसके उस गुण को अपने में अंगीकार करने और विकसित कसने के लिए उस देवता अथवा उस विभूति से तादात्म्य करना होगा। इसमें आशय यह है कि हमें अपने माध्यम से देवता के उस गुण का जितना हो सकता है उतना आगे विस्तार करना है तभी वह देवता हममें हमारी आवश्यकता के अनुसार उस गुण को और बढ़ा देंगें अर्थात देवता का लाभ हमें तभी मिल पाएगा जब उसके गुणों द्वारा, अपने माध्यम से हम अन्यों को लाभ देंगे। यही ‘देवो भूत्वा देवं यजेत्’ का आशय है।

वर्णानामर्थसंघानां रसानां छन्दसामपि।
मंगलानां च कर्त्तारौ वन्दे वाणीविनायकौ॥1॥

मंगलाचरण के प्रथम श्लोक में सर्वप्रथम वाणी (सरस्वतीजी) तथा गणेशजी की वंदना की गयी है। वाणी की अभिव्यक्ति पचास अक्षरों वाली वर्णमाला से होती है। इन्ही पचास वर्णो से भाषा के सम्पूर्ण शब्द बनते हैं जिनके साथ उनके अर्थ जुड़े होते हैं। अर्थों से मन के भावों के अनुसार रसों की उत्पत्ति होती है। इन शब्दों से व्यवहार जगत् चलता है और साहित्य के विशाल भण्डार की भी सृष्टि होती है। काव्य के छंदों की रचना होती है। ‘छंद’ शब्द का एक अर्थ ‘आशय’ भी होता है। अतः सरस्वतीजी को नमन करते हुए यह स्मरण रखें कि हमारी वाणी सार्थक और सदाशयता से युक्त हो। गणेशजी मंगल के कर्ता हैं। उन्हें नमन करते हुए यह भावना होनी चाहिए कि हमारे सब कार्य शुभ कि भावना से युक्त रहें।

भवानीशंकरौ वन्दे श्रद्धाविश्वासरूपिणौ।
याभ्यां विना न पश्यन्ति सिद्धाः स्वान्तःस्थमीश्वरम्॥2॥

मंगलाचरण के दूसरे श्लोक में भवानी-शंकर की वंदना उन्हें श्रद्धा और विश्वास का साक्षात् रूप मानकर की गयी है।श्रद्धा और विश्वास के बिना जीवन के किसी भी व्याहार की कल्पना नहीं की जा सकती। श्रद्धा और विश्वास की सीमा यहाँ तक बता दी गयी है कि सिद्धगण भी इनके बिना अपने अंत:करण स्थित ईश्वर को नहीं देख सकते। अतः ईश्वर के प्राकृतिक विधान में विश्वास और उस विधान का पालन करने वालों के प्रति हममें श्रद्धा का होना आवश्यक है अन्यथा अभीष्ट पथ पर अग्रसर होना सम्भव नहीं होगा।

वन्दे बोधमयं नित्यं गुरुं शंकररूपिणम्।
यमाश्रितो हि वक्रोऽपि चन्द्रः सर्वत्र वन्द्यते॥3॥

मंगलाचरण के तीसरे श्लोक में नित्य गुरु शिव की वंदना की गयी है। उचित-अनुचित, सद-असद, क्या करना चाहिए क्या नहीं करना चाहिए, का बोध सबको जन्म से ही संप्राप्त है और सदा मार्ग दर्शन करता रहता है, हम उसकी माने या नहीं मानें। बोध-स्वरूप नित्य गुरु ही शंकर (कल्याणकारी) है। उनके आश्रित हुआ टेढ़ा चंद्रमा भी सर्वत्र वन्दनीय हो जाता है, अर्थात् विवेक के आश्रय से व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन की विसंगतियों और असामंजस्य की अवस्था में सामंजस्य और संतुलन आता है। विवेक जाग्रत रह कर काम कर सके इसके लिए निरंतर सत्संगति बनी रहनी चाहिए।

सीतारामगुणग्रामपुण्यारण्यविहारिणौ।
वन्दे विशुद्धविज्ञानौ कवीश्वरकपीश्वरौ॥4॥

मंगलाचरण के चौथे श्लोक में विशुद्ध विज्ञान रूप ‘कवीश्वर’ (वाल्मीकि जी) और ‘कपीश्वर’ (हनुमान जी) की वंदना की गयी है। उन्हें विज्ञान रूप इसलिए कहा गया है क्योंकि राम-नाम की महिमा का ज्ञान उनके अनुभव में उतर कर विज्ञान बन गया है। समस्त सृष्टि गुणमयी है।सीता-राम ही गुणरूप में विश्वरूप में सजे हुए हैं (‘सियाराममय सब जग जानी’)/ गुण-रहित अथवा यों कहें कि राम से रहित सृष्टि में कुछ भी नहीं हो सकता।सारा विश्व राम के गुण समूह का पुण्य अरण्य (वन) है। वाल्मीकि जी साहित्य के माध्यम से भगवान के गुण समूहों का बखान कसके उनका प्रचार करते हैं। अतः इनसे यह प्रेरणा मिलती है कि सर्वत्र सबमें गुण दर्शन करने का अभ्यास रखें। राम नाम की सच्ची साधना यही है कि  सबमें, गुण रूप से अभिव्यक्त हो रहे राम का दर्शन, स्मरण और कथन का अभ्यास अधिकतम रहे। दोष दर्शन से बचना चाहिए अथवा उसे दूर करने का यत्न करना चाहिए।

उद्भवस्थितिसंहारकारिणीं क्लेशहारिणीम्।
सर्वश्रेयस्करीं सीतां नतोऽहं रामवल्लभाम्॥5॥

पाँचवे श्लोक में रामजी की वल्लभा सीता जी को नमन किया गया है। राम की प्रियतमा सीता जी भगवान की मूल प्रकृति ही हैं जो संसार की उत्पत्ति, पालन और समाहार की कारणभूता हैं। वे स्वभाव से ही क्लेश को क्रमशः कम करते हुए हरने वाली और सब प्रकार से शुभ परिणाम ही देने वाली हैं। अतः हमें हृदय से ऐसी प्रकृति के विधान के साथ, आस्था रखते हुए प्रतिक्षारत रह कर चलना चाहिए।

यन्मायावशवर्ति विश्वमखिलं ब्रह्मादिदेवासुरा
यत्सत्त्वादमृषैव भाति सकलं रज्जौ यथाहेर्भ्रमः।
यत्पादप्लवमेकमेव हि भवाम्भोधेस्तितीर्षावतां
वन्देऽहं तमशेषकारणपरं रामाख्यमीशं हरिम्॥6॥

अब मंगलाचरण के छठे श्लोक में सब कारणों के भी अंतिम कारण, जिनका स्वयं का अन्य कोई कारण नहीं है ऐसे ‘राम’ कहने वाले परब्रह्म की वंदना की गयी है। वे चैतन्य के महासागर हैं और आकाश की भाँति भीतर-बाहर सब ओर व्याप्त हैं। उसी चैतन्य के अस्तित्व से जिस प्रकार अंधेरे में पड़ी रस्सी में सर्प का भ्रम हो जाता है वैसे ही निरंतर अतीत में जाता हुआ, शून्य में जाता हुआ यह जगत् भी सत्य सा लगता है। इस विनाशवान जगत् रूप समुद्र को पार कसने की इच्छा रखने वालों के लिए ‘राम’ के चरण ही एकमात्र नाव है। यहाँ चरण शब्द का तात्पर्य ‘आचरण’ से लेना चाहिए। जीवन पथ पर जिस रीति से चलना होता है, वह है धर्माचरण। उत्तरकांड के ४६वें दोहे की चौथी चौपाई में राम कहते हैं – “ऐहि आचरन बस्य मैं भाई॥” ‘मैं तो भाई इसी आचरण के वश में रहता हूँ’। वह कौनसा आचरण है जिसके वशमें राम रहते हैं? यदि हम श्रेयस् चाहते हैं तो हमें भी वही अपनाना होगा, वही संसार सागर को पार करने वाली एकमात्र नौका है। धर्म को चार चरणों वाला कहा गया है। इन चार चरणों को अलग-अलग ग्रंथों में अलग अलग नामों से कहा गया है जिसका आशय समान ही है। यहाँ उन्हें सत्संगति, भक्ति (समर्पण), पुण्यकर्म और शंकर की भक्ति के रूप में बताया गया है। पुण्यकर्म के सम्बंध में राम कहते हैं कि जगत् में एक ही पुण्य होता है, दूसरा नहीं और वह है मन, वचन और कर्म से विप्र (जिसका जीवन/आचरण विशेष रूप से प्रकृष्ट है) का सेवन करते हुए उसका तादात्म्य प्राप्त करना और उनके ‘पद’ (स्थिति) को प्राप्त कर लेना। शंकर भजन की बात रूपात्मकता से कही गयी है जिसका अभिप्राय है कि सत्संगति, भक्ति (समर्पण) और पुण्यकर्म (तप) को आसक्ति और फल को छोड़ते हुए करने हैं। शंकर ही आसक्ति और फल त्याग रूप समत्वया सहिष्णुता की मूर्ति हैं। शिवतत्व (आसक्ति और फल त्याग) की उपासना के बिना विष्णुतत्व (सत्संग, भक्ति और पुण्यकर्म द्वारा) उपासना का लाभ नहीं होगा। यहाँ ‘ऐहि आचरन बस्य मैं भाई’ में ‘भाई’ कह कर भगवान राम ने मानो अपनी बात पर अंतिम मुहर लगा दी है। यहाँ यह कहना प्रासंगिक होगा कि श्रीमद्भगवद् गीता में भी भगवान ने ‘निश्चितम्’ कह कर धर्म के इन्ही चार चरणों को अपनाने पर ज़ोर दिया है और अपनी अंतिम मुहर लगा दी है। गीता में ‘निश्चितम्’ शब्द दो स्थानों पर आया है। जब अर्जुन ने भगवान से याचना की कि जो ‘निश्चित’ श्रेय है वही बतायें (गीता अध्याय-२ श्लोक-७)। इस पर गीता के सार रूप पुनर्कथन वाले अठारहवे अध्याय के श्लोक संख्या ५ और ६ में भगवान ने धर्म के चारो चरणों 1. यज्ञ (ज्ञानयज्ञ-सत्संगति), 2. दान (भक्ति-समर्पण), 3. तप (पुण्यकर्म), को नहीं छोड़ने को कहा है तथा इन्हें भी 4. सहिष्णुता (आसक्ति और फल छोड़कर) से करना आवश्यक बताया है और यह कह दिया है कि यही उनका ‘निश्चित’ उत्तम मत है। अतः जीवन में धर्म का पालन ही आचरण है अथवा कहें कि प्राकृतिक विधान के अनुसार चलना है।

नानापुराणनिगमागमसम्मतं यद्
रामायणे निगदितं क्वचिदन्यतोऽपि।
स्वान्तःसुखाय तुलसी रघुनाथगाथा
भाषानिबन्धमतिमंजुलमातनोति॥7॥

मंगलाचरण के अंतिम सातवें श्लोक में तुलसीदासजी स्वयं अपनी बात कह रहे हैं। वे कहते है कि रामायण में उल्लिखित व अन्य स्त्रोतों से प्राप्त तथा पुराणों, वेदों व दर्शनशास्त्र से सम्मत जो रघुनाथ जी की गाथा है, उसे तुलसीदास ने अपने अंतःकरण के सुख के लिए विस्तार से सुंदर भाषा में आबद्ध किया है।

मंगलाचरण को एक और रूप में भी ले सकते हैं- भगवान को साष्टांग प्रणाम के रूप में। साष्टांग प्रणाम आठ अंगों से किया जाने वाला प्रणाम होता है –

जानुभ्यां च तथा पद्भ्यां पाणिभ्यामुरसा धिया।
शिरसा वचसा दृष्ट्या प्रणामोsष्टाङ्ग ईरित:।।

अर्थात घुटनों सहित दोनो पैर, दोनो हाथ, हृदय, ललाट (बुद्धि का स्थान), सिर, वाणी और दृष्टि से किया प्रणाम साष्टाङ्ग प्रणाम कहा जाता है।

नमन् सबसे उत्तम क्रिया है, वह समर्पण का द्योतक है। साष्टांग प्रणाम में पूरा शरीर सम्मिलित होता है जिसका निहितार्थ है – नमनशील रह कर विश्वरूप भगवान की क्रियात्मक सेवा करना।

प्रथम श्लोक के अनुसार वाणी (सरस्वती जी) और गणेश जी का संबंध हमारी वाणी और शुभकार्य करने वाले हाथों से है। द्वितीय श्लोक में भवानी-शंकर का संबंध हमारे नेत्रों से हो जाता है। तृतीय का सम्बंध बुद्धि के स्थान ललाट से है जहाँ बोधमय नित्यगुरु शिव (विवेक) का निवास है। चतुर्थ श्लोक का संबंध घुटनों सहित दोनो पैरों से है, जिसका निहितार्थ है कि सीता राम जी के गुण समूह रूपी वन में विहार (विचरण) करने वाले कवीश्वर और कपीश्वर। पंचम श्लोक का संबंध हृदय (उर) से है। राम की प्रियतमा सीता जी (मूलप्रकृति) हैं। प्रियता हृदय से जुड़ी बात होती है। षष्टम श्लोक का सम्बंध शीर्ष (सिर) से है जो परासत्ता (ब्रह्म) का सहस्रार चक्र में स्थान है। सातवें श्लोक में तुलसीदास जी नें ‘स्वान्तःसुखाय’ कह कर अपने मन को भी सम्मिलित कर लिया क्योंकि सुख का संबंध मन से है। इस प्रकार उन्होंने दोनो अंतःकरणों – बुद्धि और अहं (हृदय) के साथ-साथ तीसरे अंतःकरण, मन का भी समावेश कर लिया।

साष्टांग प्रणाम नमन का प्रतीकात्मक रूप है। मंगलाचरण के अन्य अर्थों के अतिरिक्त उसके इस आनुषंगिक पक्ष पर भी ध्यान दिया जा सकता है।

इस प्रकार मंगलाचरण का अर्थ अपनी भावभूमि के अनुसार करने का प्रयास किया।

गोष्ठी (गीतायन-यज्ञ)

जीवन के अनिवार्य तत्त्व संतुलन के चार बुनियादी साधनों (सत्संग-यज्ञ, कोष, श्रम और सहिष्णुता) में गोष्ठी प्रथम है।

प्रत्येक व्यक्ति को कम से कम अपने निवास-स्थान पर साप्ताहिक सत्संग-यज्ञ का संयोजन अवश्य करना चाहिए, जिसमें उपस्थित व्यक्ति आत्माभिव्यक्ति करे और अंत में ‘ॐ हम बनें सहिष्णु, रहें संतुलित’ – प्रार्थना (या विचार सूत्र) का वाचन हो।

सप्ताह के शेष दिनों में प्रत्येक व्यक्ति को सुविधानुसार अपनी गोष्ठी में आने वाले मित्रों के निवास-स्थानों पर संयोजित गोष्ठियों में जाना चाहिए।

गोष्ठी में आसन, वार्तालाप और जल की व्यवस्था वांछनीय है। उसमें वे सब चीज़ें अवांछनीय हैं, जिनसे किसी भी उपस्थित व्यक्ति को सत्संग-लाभ से वंचित रहना पड़े।

गोष्ठी से होने वाले लाभ पर गोष्ठी की सफलता निर्भर है, आने वाले व्यक्तियों की संख्या आदि पर नहीं। गोष्ठी में आमंत्रित महानुभाव रुचिकर या लाभदायक न लगने के कारण यदि गोष्ठी में न आ पायें तो उसका यह अर्थ नहीं है कि गोष्ठी में कमी है।

गोष्ठी के संयोजक हमें अपनी गोष्ठी का विवरण भेजने की कृपा करे।

सत्ये लोक: प्रतिष्ठित:

प्रायः ऐसा देखा जाता है कि सत्य का आचरण करने वालों को कष्ट उठाना पड़ता है और असत्य का आचरण करने वाले सुख से जीवन व्यतीत करते हैं। पर ऐसा स्थूल दृष्टि से ही लगता है। सत्याचरण से जो आत्मिक तृप्ति मिलती है, उसके सामने सारे भौतिक सुख फीके हैं तथा असत्य का आचरण करने वाला आत्मा के सुख से वंचित रह कर भौतिक सुख सुविधाओं का अभाव न रहने पर भी अतृप्त रहता है।

सत्याचरण से मिलने वाले आत्मिक सुख का स्वाद ज्ञात न होने से ही मनुष्य सुख सुविधाओं के अभाव के भय से सत्य विमुख होता है। संसार में जो भी सुख-सुविधायें उपलब्ध हैं, वे सत्याचरण के कारण ही हैं। यह ठीक है कि सत्य का आचरण न करने वाले व्यक्ति उन सुख-सुविधाओं का लाभ अधिक उठा लेते हैं और यदि सत्याचरण अधिक हो तो, संसार में सुख-सुविधाओं की अधिक उपलब्धि सम्भव है।

असंगति का कारण सामाजिक दुर्व्यवस्था, तथा सत्य का आचरण करने वालों में व्यवहार कौशल और सत्य की व्यापक कल्पना न होना है। जैसा लगता है, वैसा ही वाणी से प्रकट करना सत्य का संकीर्ण अर्थ है और जैसा है वैसा जान कर उसका आचरण करना सत्य का व्यापक अर्थ है।

व्यापक अर्थ में व्यवहार कुशल बनने तथा सामाजिक व्यवस्था ठीक करने का प्रयास करना तथा अन्य सभी कर्त्तव्य सम्मिलित हैं। अपने संकीर्ण अर्थ में भी सत्य का बुनियादी महत्व है, क्योंकि उससे वास्तविकता सामने आती है, जो यदि सही है तो प्रगति और ग़लत है तो सुधार को सम्भव बनाती है।

सत्य में ही लोक प्रतिष्ठित है, हमें असंगतियो की शिकायत करने तथा सुख-सुविधाओं के अभाव के भय से सत्य विमुख होने की अपेक्षा व्यवहार-कुशल बनने और सामाजिक व्यवस्था को ठीक करने का प्रयास करना चाहिए तथा सत्याचरण की तृप्ति का स्वाद लेना चाहिए।

अध्यापक-अध्येता-वर्ग-योजना

आज हम गुरु-वर्ग के सम्मान में कमी तथा उसके कारण सामाजिक जीवन पर पड़ रहे दुष्प्रभाव से चिन्तित हैं-यह तो उचित ही है, पर सहयोगी स्वावलम्बन पर आधारित कोई उपचार नहीं कर पा रहे हैं। अध्यापक-अध्येता-वर्ग-योजना को अपने शिक्षा संस्थानों में लागू करके प्राचार्य-गण निराशाजनक स्थिति को समाप्त कर सकते हैं।

अध्यापक एवं छात्रों में व्यक्तिगत सम्पर्क अत्यन्त महत्वपूर्ण होता है। अध्यापक- अध्येता-वर्ग-योजना के अन्तर्गत प्रत्येक अध्यापक लगभग 25 छात्रों के वर्ग से परामर्शदाता के रूप में सम्बद्ध रहता है। प्रत्येक वर्ग का सप्ताह/पक्ष में एक बार ‘मिलन’ होता है। इसके अलावा भी छात्र अपने वर्ग-परामर्शदाता प्राध्यापक से समय-समय पर सम्पर्क स्थापित करके अपनी समस्याओं का समाधान करने का प्रयास करता है।

प्रत्येक छात्र से यह अपेक्षा की जाती है कि वह अपने वर्ग-परामर्शदाता को अपनी प्रगति, वित्तीय एवं भावनात्मक समस्याओं आदि से परिचित रखे। वह चरित्र प्रमाण-पत्र, रेल या शुल्क रियायत, छात्र सहायता कोष से अनुदान, पाठ्य-पुस्तकों की प्राप्ति आदि के सम्बन्ध में अपने आवेदन पत्रों को अपने वर्ग-परामर्शदाता द्वारा संस्तुत कराये।

प्रवेश लेने वाला प्रत्येक छात्र प्रवेश पत्र के साथ ही अध्यापक-अध्येता-प्रपत्र भी भरे।…

आपके शिक्षा संस्थान में या तो अध्यापक-अध्येता-वर्ग-योजना लागू है या आप उसे लागू करना चाहेंगे। दोनों ही स्थितियों में कृपया हमें सूचित करें, जिससे अनुभवों के आदान-प्रदान द्वारा अध्यापक-अध्येता-वर्ग-योजना की सफल क्रियान्विति को बल मिले, गुरुवर्ग पुनः समाज में अपना उचित स्थान प्राप्त कर सके और राष्ट्र के संतुलित व्यक्तित्व से सम्पन्न समर्थ कर्णधारो का निर्माण निरन्तर होता रहे।

क्रमिक गायत्री साधना

ॐ गायत्र्यस्येकपदी द्विपदी त्रिपदी चतुष्पद्यपदसि न हि पद्यसे नमस्ते तुरीयाय दर्शताय पदाय परो रजसेऽसावदो मा प्रापत् ।।वृहदाण्यक, 5-14,7।।

हे गायत्री, तुम प्रथम चरण (तत्सवितुर्वरेण्यं) से एक पदी हो, द्वितीय चरण (तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गोदेवस्य धीमहि) से द्विपदी हो, तृतीय चरण (तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गोदेवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्) से त्रिपदी हो और तुरीय (चतुर्थ) चरण (ॐ भूःर्भुवःस्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्) से चतुष्पदी हो। तुम अपद भी हो, क्योंकि तुम्हारे त्रिगुणातीत रूप की अभिव्यक्ति संभव नहीं है। तुम्हारे दर्शनीय (अनुभव करने योग्य) चतुर्थ पद को, जो रजस् से परे है,नमस्कार है। उसकी प्राप्ति में विघ्न डालने वाले (रजस्, तमस आदि) मुझे प्राप्त न हों।

गायत्री में तीन चरण, चौबीस अक्षर और दस पद हैं। इनका संबंध तीन अंतःकरणों, चौबीस अंगों और दस दिशाओं से है। क्रमिक गायत्री द्वारा गीतायन-यंत्र की सहायता से ध्यान करके तीनों अंतःकरणों, चौबीस अंगों और दस दिशाओं को पवित्र और शक्ति-सम्पन्न किया जाता है। ध्यान के समय यंत्र मुख (स्वस्तिक) पूर्व दिशा में रखा जाता है और उपासक (साधक) उत्तर में बैठता है। पूर्व दिशा में सूर्य उदय होता है, वह ज्ञान की दिशा मानी जाती है और उत्तर दिशा उत्तम मार्ग पर चलने वालों के लिए श्रेष्ठ मानी गई है। नित्य गुरु शिव का कैलासधाम उत्तर में है। शिवलिंग की जलहरी का मुख सदैव उत्तर की ओर रहता है। साधक इस दिशा से अपनी साधना प्रारंभ करता है। यंत्रमुख बताता है कि हमारा लक्ष्य क्या है, हमें कहाँ पहुँचना है और प्रतीक (शिवलिंग) मुख बताता है कि हमें कहाँ से प्रारंभ करना है। शिवलिंग यज्ञ-वेदी और अग्नि का, ब्रह्माण्ड और पिंड का, आकाश और सूर्य का, भगवान और भक्त आदि का प्रतीक है। गीतायन-यंत्र द्वारा इस प्रतीक की व्याख्या प्रस्तुत की गई है।

जब हम भूः (प्रकृति) की स्थिति में ‘धियों यो नः प्रचोदयात् स्वाहा’ बोलते हैं तो नाभि में यंत्र के प्रस्तुत रूप का ध्यान करते हैं। इससे मन-अंतःकरण, नीचे के नाभि तक आठ अंग और उत्तर, ईशान, ऊर्ध्व व भूमि दिशाएं वरेण्य (ॐ) के भर्ग से युक्त हो जाते हैं। इसमें धर्म के चार चरणों में से सहिष्णुता-चरण सहायक होता है।

जब हम भुवः (प्रगति) की स्थिति में… ‘भर्गो देवस्य धीमहि स्वाहा’ बोलते हैं तो हृदय में यंत्र के तीन मंडल, दो षट्कोण और पांच प्रतीकों का ध्यान करते हैं। इससे अहंकार, अंतःकरण, नाभि से लेकर मुख तक के मध्य के आठ अंग और नैऋत्य, पश्चिम और वायव्य दिशाएँ वरेण्य (ॐ) के भर्ग से युक्त हो जाते है। इसमें तप सहायक होता है।

जब हम स्वः (पूर्णता) की स्थिति में… ‘तत्सवितुर्वरेण्यं स्वाहा’ बोलते हैं तो भ्रूमध्य में यंत्र के दो षट्कोण, तीन मंडल का ध्यान करते हैं। इससे बुद्धि-अंतःकरण, ऊपर के आठ अंग और पूर्व, आग्नेय व दक्षिण दिशाएँ वरेण्य (ॐ) के भर्ग से युक्त हो जाते है। इसमें यज्ञ-दान सहायक होते हैं।

जब हम ‘भूः भुवः स्वः स्वाहा’ बोलते हैं, तब भी भ्रूमध्य में ही यंत्र का ज्योतिर्लिंग के रूप में ध्यान करते हैं और पूर्वोक्त अंतःकरणों, अंगों व दिशाओं को समग्र रूप से वरेण्य (ॐ) के भर्ग से युक्त अनुभव करते हैं। इसमें धर्म के चारों चरण समग्ररूप से सहायक होते हैं।

जब हम ‘ॐ स्वाहा’ बोलते हैं तो सहस्रार में स्वाहा की स्थिति में समाधिस्थ होते हैं। यह त्रिगुणातीत स्थिति है।

यह ध्यान का आरोह क्रम है। इसे बाद अवरोह क्रम में हम वापस आते हैं। आरोह में हम स्थूल से सूक्ष्म की ओर जाते हैं और अवरोह में सीमित से विस्तार की ओर।

गीतायन-तंत्र

बोधमय नित्यगुरु शिव गीतायन की तीन (संयोजक, संतुलन, अंतरंग) समितियों के तंत्र-त्रिशूल द्वारा जीवन की व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक- शारीरिक, आर्थिक मानसिक समस्याओं के त्रिपुरासुर का वध करते हैं।

हमें व्यक्तिगत, पारिवारिक या सामाजिक किसी भी प्रकार की (शारीरिक, आर्थिक या मानसिक) परेशानी है तो हम प्रकृति का कोई नियम तोड़ रहे हैं। समस्या यह है कि हमें कैसे पता लगे कि हम अमुक नियम तोड़ रहे हैं। यदि हम किसी अन्य व्यक्ति से यह अपेक्षा रखते हैं कि वह हमें बतायेगा, तो हम अपनी ऊर्जा नष्ट ही करेंगे। यह कार्य प्रकृति ही करती है। उसने हमारी ज्ञानेन्द्रियों को बहिर्मुखी बनाया है। किसी के बोलने पर ही हम सुन पाते हैं, अतः प्रकृति से मार्गदर्शन प्राप्त करने के लिए हमें अपने अतिरिक्त एक व्यक्ति की आवश्यकता है।

अपने सम्पर्क के किसी भी एक व्यक्ति को हम अपनी रुचि के अनुसार एतदर्थ चुन लें और सप्ताह में एक दिन उसके यहां जाकर हम उसकी बात सुनें और अपनी कहें। इसी प्रकार यदि किसी ने आपको चुना है, तो आप उससे एक दिन अपने यहां सुनें/कहें और यथासम्भव उसके यहां जाकर भी उससे सुनें/कहें। यदि उपस्थित व्यक्तियों की संख्या दो से अधिक है तो भी दो ही माननी चाहिये, एक संयोजक और एक उसके यहां जाने वाला सदस्य/ संयोजक/असंबद्ध व्यक्ति विशेष। बिना वक्ता की अनुमति के बीच में न बोला जाय। वक्ता को कितनी देर बोलना है, यह संयोजक तय करेगा। वक्ता को मार्गदर्शन देने के लिए नहीं बोलना है। उसे यह बताना है कि वह अपने लिए क्या ठीक मानता है, चाहता है, करता है तथा उपलब्ध किया है। इस प्रकार वक्ता अपने वक्तव्य द्वारा श्रोता को आत्म-परिचय देता है। श्रोता वक्तव्य के बाद कोई बात स्पष्ट करने के लिए प्रश्न पूछ सकता है और सहमत होने पर सहयोग कर सकता है। दोनों की इच्छा दूसरे को अपने से सहमत कराने की नहीं होनी चाहिए, मात्र अपने से परिचित कराना और दूसरे से परिचित होना तथा इस प्रक्रिया में स्वयं अपने से और अधिक परिचित होना ही उद्देश्य होना चाहिए। शेष स्वतः होगा।

हर व्यक्ति अपने अनुभवों के अनुसार जाग्रत विवेक के आधार पर कुछ बातों को सही और कुछ को गलत मानता है। उसका दायित्व है कि वह सही बातों को यथासम्भव बढ़ावा दे। इसके लिए अपने सम्पर्क में आने वाले व्यक्तियों से चर्चा होनी चाहिए, और गीतायन-तंत्र द्वारा सही बात को बढ़ावा देने हेतु सर्व-सुलभ सहयोगी-स्वावलम्बन पर आधारित कदम भी उठाया जाना चाहिए।

व्यक्ति जो भी करता है, उसका श्रेय या दायित्व उसी व्यक्ति का है।

हमारे द्वारा प्रकृति के एक बुनियादी नियम का भंग होता है, जिससे हमें तनाव का सामना करना पड़ता है, हम शेष ब्रह्माण्ड से अपने को अलग मानते हैं। परिणामतः, दूसरों के सुख-दुख में हमारी रुचि नहीं होती, हम केवल अपने सुख-दुख में ही रुचि लेते हैं। कभी-कभी हम सबके प्रति शुभ कामना रखने के बजाय किसी के प्रति अशुभ कामना भी रखते हैं, यहाँ तक कि हम उसको हानि पहुंचाने के प्रयास से भी अपने को रोक नहीं पाते। अक्षमतम व्यक्ति भी सबके प्रति शुभकामना तो रख ही सकता है। एक दिन अपने यहां स्वाध्याय-गोष्ठी का संयोजन अपनी रुचि के अनुसार करके तथा एक दिन अपने संयोजक की स्वाध्याय गोष्ठी में भाग लेकर और अपने सम्पर्क में आने वाले व्यक्तियों को तदर्थ प्रेरित करके हम सबके प्रति शुभकामना को सहज ही क्रियात्मक रूप देना प्रारम्भ कर सकते हैं।

किसी को यह कहने का अवसर नहीं मिलना चाहिए कि उन तक ‘गीतायन’ का संदेश पहुंचा ही नहीं, नहीं तो वे अवश्य सहयोग करते। हम अपने सम्पर्क में आने वालों को गीतायन यज्ञ का स्वरूप समझायें तथा गीतायन-यज्ञ का स्वयं भी संयोजन करने हेतु प्रेरित करें, क्योंकि केवल दूसरे द्वारा संयोजित गीतायन-यज्ञ में सम्मिलित होने से वांछित लाभ नहीं होगा। गीतायन-यज्ञ-संयोजकों को प्रारम्भ से ही स्पष्ट कर देना वांछनीय है कि लोग गीतायन यज्ञ में अपनी रुचि व सुविधा के अनुसार सम्मिलित होंगे। एक स्थान पर अधिक संख्या एकत्र करने पर बल देने की बिल्कुल आवश्यकता नहीं हैं, उन्हीं लोगों को एकत्र होना वांछित लाभकारी होगा जो स्वयं भी गीतायन यज्ञ के संयोजक हैं और गीतायन यज्ञ में सुविधानुसार पहुँचते हैं।

गीतायन-पंचशील

गोष्ठी पंचशील –

  1. गोष्ठी में निर्णयाधिकार संयोजक का होता है, जिसके निवास स्थान पर नियमित गोष्ठी का संयोजन होता है।
  2. संयोजक एक अन्य नियमित गोष्ठी में भाग लेता है, जिसका वह सदस्य होता है।
  3. संयोजक अपने सम्पर्क में आने वाले प्रायः दस तक प्रबुद्ध व्यक्तियों को उनके अपने निवास स्थान पर नियमित गोष्ठी का संयोजन करने के लिए प्रेरित करता है।
  4. संयोजक अपनी गोष्ठी में नियमित रूप से भाग लेने वाले सदस्य-मित्रों की गोष्ठियों में प्रायः क्रमिक रूप से उपस्थित होता है।
  5. गोष्ठी का समापन गोष्ठी का महत्तम अंग है, जिसमें प्रायः गीतायन ‘‘पंचशील’’ विज्ञप्ति का वाचन तथा ‘‘मौन’’ का समावेश होता है। समापन के पूर्व संयोजक उपस्थित सदस्य मित्रों को आत्माभिव्यक्ति का अवसर देता है।

कोष पंचशील –

  1. सर्वाधिक महत्वपूर्ण कार्य न्यूनतम अर्थाधारित होता है, यथा अपने निवास पर नियमित गोष्ठी का संयोजन।
  2. सामाजिक कोष में अपनी मासिक आय का कम से कम शतांश प्रतिशत (अधिकतम दशमांश प्रतिशत) दान करके प्रगतिशील गोष्ठी संयोजक सन्तुलन समिति की सदस्यता प्राप्त कर लेता है।
  3. कोष का सामाजिक विनियोग संतुलन समिति का संयोजक दाता सदस्य की सम्मति से करता है। दाता सदस्य कोष में प्रदत्त अपनी राशि के, संयोजक के ही निर्णयानुसार, विनियोग हेतु स्थायी सम्मति प्रदान कर सकता है।
  4. सन्तुलन-समिति का प्रगतिशील सदस्य सामाजिक कोष में प्रदत्त अपनी राशि सामाजिक विनियोग हेतु प्रायः ऋण रूप में प्राप्त कर सकता है, जिस पर ब्याज नहीं लिया जाता। नया ऋण प्राप्त करने के पूर्व, पूर्व प्राप्त ऋण लौटाया जा चुकता है।
  5. सन्तुलन-समिति का प्रगतिशील संयोजक ‘गीतायन’ को सर्वस्व समर्पण करके अंतरंग-समिति की सदस्यता प्राप्त कर लेता है। उसकी समस्त आवश्यकताओं की पूर्ति का दायित्व ‘गीतायन’ पर होता है।

श्रम पंचशील –

  1. सन्तुलन समिति के कोष की मूल राशि का विनियोग प्रायः ‘समिति’ के सदस्यों की श्रम (आजीविका) सम्बन्धी समस्याओं के हल हेतु ही होता है, अन्य प्रकार का सामाजिक विनियोग संयोजक के निर्णयानुसार प्रायः ब्याज की राशि तक सीमित रहता है।
  2. ‘गीतायन’-सम्मत आजीविका कार्य समाज सम्मत होता है।
  3. ‘गीतायन’-सम्मत आजीविका कार्य रुचिकर होता है।
  4. ‘गीतायन’-सम्मत आजीविका कार्य प्रमाणिकता से किया जाता है।
  5. आर्थिक रूप से स्वतंत्र ‘यज्ञ’ कर्ता मित्र संयोजक-समिति के तथा ‘दान’ कर्ता मित्र संतुलन समिति के सदस्य होते हैं।

सहिष्णुता पंचशील-

  1. जीवन में कोई बात इतनी महत्वपूर्ण नहीं है कि उसके लिए हम असहिष्णु हों ।
  2. सहिष्णुता से शक्ति का व्यर्थ संघर्ष में अपव्यय नहीं होकर, उस बात के लिये विनियोग संभव है जिसे हम महत्व देते हैं।
  3. सहिष्णुता के लक्ष्य-प्राप्ति में ‘सम्पर्क’ के मित्रों का सहयोग मिलने की संभावना बढ़ती है।
  4. अपने में सहिष्णुता के विकास के लिए अपने संयोजक मित्र को माध्यम बनाया जाता है।
  5. ‘गीतायन’-उपासना में प्राथमिक और अन्तिम चरण सहिष्णुता है।

अशब्द पंचशील – 卐

व्यक्तिगत, पारिवारिक-सामाजिक समस्याएं जब हमारे सामने आती है तो प्रायः हम असंतोष प्रकट करते हैं, पर वे समस्याएं हल नही होती हैं क्योंकि हम चाहते हैं कि कोई दूसरा ही उन समस्याओं को हल करे, हमें उस दिशा में कुछ नहीं करना पडे़ । आशा है, आप हमसे सहमत होगें कि इस प्रकार की गैर जिम्मेदारी समाप्त होनी चाहिए और उसका प्रारम्भ हमसे और आपसे होना चाहिए ।

हमने प्रारम्भ कर दिया है। हम एक घण्टा प्रतिदिन समस्याओं पर सुलभ मित्रों के साथ चर्चा करके आपसी सहयोग से उन्हें हल करते हैं। रविवार को सन्तुलन विद्या मन्दिर/ज्ञान-मन्दिर में ___ वार को प्रेरित के घर पर तथा ___वार को मातृमन्दिर पर ‘‘पारिवारिक सत्संग-गोष्ठी’ होती है। शेषवार पड़ौसी सम्पर्क तथा मौहल्ला सभाओं के लिए नियत हैं। इस क्षेत्र को मौहल्ला सभा ___वार, दिनांक ______ को __ बजे आयोजित है। वहाँ हम समस्याओं को आपसी सहयोग से हल करेगें । इस बीच कृपया संयोजक समिति (उक्त कार्य के लिए एक घण्टा प्रतिदिन देने वाले मित्र) को अपनी, अपने परिवार की तथा अपने मौहल्ले की समस्याओं को जानकारी देने का कष्ट स्वीकार करें तथा यह भी सूचित करे कि इस ‘यज्ञ’ में आप स्वयं क्या ‘आहुति’ दे सकते हैं।

गीतायन यन्त्र

उपासना द्वारा उपासक उपास्य से तादात्म्य प्राप्त करता है। तान्त्रिक उपासना-पद्धति क्रान्तिकारी एवं वैज्ञानिक उपासना पद्धति है। उसमें उपासना के लिये यन्त्र का उपयोग होता है, जिसमें मन्त्र सुनियोजित ढंग से लिखा होता है। ‘गायत्री छन्दसामहं’ कहकर श्री गीतेश्वरी ने गायत्री-मंत्र के सर्वोपरि महत्व को स्वीकार किया है। गीतायन यंत्र में गायत्री मंत्र की स्थिति श्री गीतेश्वरी के निर्देशानुसार है।

गीतायन-यंत्र में तीन मण्डल और दो षट्कोण हैं। प्रथम सबसे बड़ा मण्डल परमात्मा का, द्वितीय उससे छोटा मण्डल गुरुतत्व (गायत्री/गीता/बुद्धि) का, तृतीय सबसे छोटा मण्डल साधक का, प्रथम बड़ा षट्कोण गुरुतत्व का प्रतिनिधित्व करने वाले संयोजक-मित्र (सम्पृक्तों में से वह मित्र, जिसे आपने लाभ लेने की दृष्टि से सबसे अधिक उपयुक्त माना है) का तथा द्वितीय छोटा षट्कोण साधक को संयोजकत्व तथा अपने संयोजक-मित्र लाभ उठा सकने की योग्यता प्रदान करने वाले सदस्य-मित्र (सम्पृक्तों में से वह मित्र, जिसे आपने लाभ देने की दृष्टि से सबसे अधिक उपयुक्त माना है) का प्रतीक है।

तृतीय सबसे छोटा मण्डल साधक की संयोजक-पद-प्राप्ति-अथवा सदस्यत्व की पूर्णता तथा द्वितीय उससे बड़ा मण्डल संयोजक के गुरु तत्व से ‘सायुज्य’ अथवा संयोजकत्व की पूर्णता का द्योतक है। प्रथम सबसे बड़ा मण्डल पूर्णता रूप परमात्मा का व्यंजक है, जिसमें पूर्ण ज्ञान गर्भा त्रिपाद गायत्री अंकित हैं। ॐ तथा बड़े षट्कोण का पीत वर्ण वरेण्यता का एवं गीतायन तथा छोटे षट्कोण का रक्त वर्ण भर्ग का सूचक है। पीत षट्कोण के अंक में भूर्भुवःस्वः (ब्रह्मांड) रूप मंडल मूलतः श्याम वर्ण का है, पर रक्त वर्ण गीतायन से मिलकर भूरा हो गया है, जो गायत्री का वर्ण है। यज्ञ-दान-तप-सहिष्णुता रूप गीतायन भर्ग गुलाबी मण्डल पीत षट्कोण को आयत्त किये हुए है तथा सबसे बड़े श्याम पीत मण्डल को स्पर्श कर रहा है।

रक्त षट्कोण का अधोमुख त्रिकोण भागवत कृपा रूप गुरुतत्व का तथा ऊर्घ्वमुख त्रिकोण साधक का प्रतीक है। ऊर्ध्वमुख त्रिकोण की आधार भुजा साधक की, दक्षिण भुजा संयोजक-मित्र की तथा वाम भुजा सदस्य मित्रकी प्रतीक है। अधोमुख त्रिकोण की आधार भुजा गुरुतत्व की, दक्षिण भुजा परमात्मा की तथा वाम भुजा संयोजक परम्परा की प्रतीक है। जिस मात्रा में हम अपने सदस्य मित्र की प्रगति में रुचि लेते हैं, उसी मात्रा में हमें संयोजक मित्र का लाभ मिलता है। दोनों त्रिकोणों का मिलन सिद्धावस्था का सूचक है।

परमात्मा तथा श्री गीतेश्वरी की युगनद्धावस्था के प्रतीक पीत वर्ण षट्कोण में पीतवर्ण ॐ उपास्य का प्राचीनतम वाचक है। इसका उच्चारण करते समय इसके अर्थस्वरूप रक्तवर्ण गीतायन तत्व का स्मरण होना चाहिये, जिसका बोध श्री गीतेश्वरी एवं उपासक के प्रतीक दो रक्त वर्ण युगनद्ध त्रिकोणों द्वारा कराया गया है। पीतवर्ण षट्कोण के अंक में ब्रह्मांड के प्रतीक श्याम-रक्त मण्डल में ‘भूः’, ‘भुवः’, ‘स्वः’, उपास्य की तीन स्थितियों-प्रकृति, प्रगति ओर पूर्णता, तथा ‘स्वाहा’ उनकी उपास्य में युगनद्ध  स्थिति के भी द्योतक हैं, जो ‘सहिष्णुता’, ‘तप’ और ‘यज्ञ-दान’ लक्षणों तथा 卐 –  स्वस्तिक (लक्षणों की युगनद्ध स्थिति) से युक्त गुलाबी प्रभा मण्डल तथा वर्द्धमान पीत त्रिकोण द्वय से मंडित है। बहिरंग श्याम-पीत वर्तुल में प्रथम पाद (तत्सवितुर्वरेण्यं) केन्द्रस्थ श्याम-रक्त वर्तुल सहित ॐ, द्वितीय पाद (भर्गोदेवस्य धीमहि) केन्द्रस्थ वर्तुल के चतुर्दिक गुलाबी प्रभा-मंडल सहित गीतायन तथा तृतीय पाद (धियो योनः प्रचोदयात्) उपासक तथा श्री गीतेश्वरी की युगनद्ध स्थिति की ओर इंगित करते हैं। प्रथम पाद के उच्चारण के समय जो उपास्य साध्य था, वह तृतीय पाद के उच्चारण के समय सिद्ध हो जाता है। बहिरंग वर्तुल के चतुर्दिक नीलवर्ण, यन्त्र को दिव्य आकाश में उदित ‘सविता’ का स्वरूप प्रदान करता है।

गायत्री के तीन पादों, चौबीस अक्षरों तथा दस पदों का सम्बन्ध तीन अंतः करणों, चौबीस अंगों तथा दस दिशाओं से है-प्रथम पाद बुद्धि अंतःकरण; मस्तक, भाल, चक्षु, श्रोत्र, नासापुट, कपाल, अधरोष्ठ तथा ऊर्ध्वोष्ठ अंगों तथा प्राची, आग्नेय तथा दक्षिण दिशाओं; द्वितीय पाद अहंकार-अंतःकरण; मुख, कपोल, कंठ, स्कन्ध, दक्षिण हस्त, वाम हस्त, हृदय तथा जठर अंगो एवं नैऋति, प्रतीची तथा वायव्य दिशाओं और तृतीय पाद मन-अंत-करण; नाभि, कटि, गुह्य, ऊरु, जानु, जंघा, गुल्फ और पाद-युग्म अंगों एवं उदीची, ईशान, ऊर्ध्व एवं भूमि दिशाओं से सम्बन्धित है। ‘स्वाहा’ कहते समय शिवलिंग (उपासना के लिऐ यंत्र का सुविधाजनक प्रतीक) पर जलाहुति देते हुए सम्बन्धित ‘चक्र’ में यन्त्र का ध्यान करने से सम्बन्धित अंतःकरण, अंग तथा दिशाएँ ‘गीतायन’ सूर्य के ‘भर्ग’ से युक्त हो जाते हैं। गुह्य या नाभि तृतीय पाद से, हृदय द्वितीय पाद से तथा भू्र प्रथम पाद से सम्बन्धित चक्र हैं। ॐ का सम्बन्ध सहस्त्रार चक्र से है। उक्त चक्रों में यन्त्र की स्थिति 卐 (स्वस्तिक) के अनुसार आरोह तथा अवरोह काल में क्रमशः वाम, ऊर्ध्व, दक्षिण, अधः; दक्षिण, ऊर्ध्व, वाम तथा अधः मुख रहती है। उपासना काल में उपासक दक्षिण-मुख बैठता है, जिससे प्रतीक-मुख उसकी ओर रहता है तथा यन्त्र को वाम-मुख रखा जाता है जिससे अंतःकरण, अंगो {यंत्र ऊर्ध्व (vertical) रूप में} तथा दिशाओं {यंत्र क्षैतिज (horizontal) रूप में} में मंत्र न्यास के समय अनुकूलता रहती है। उपासना ‘चक्र’ में संयोजक उपासक मित्र दायीं और तथा सदस्य उपासक मित्र बायीं ओर बैठते हैं। मंत्र न्यास में सुविधा के लिए उपासना ‘दिगम्बर’ या ‘कंचुक’ में करने का प्रावधान है। देह-भाव के ऊपर उठने वाले उपासक को उसमें असुविधा असंगत है।

गीतायन यंत्र के अधोबिन्दु (सालोक्य प्रतीक) से व्यक्ति की साधना प्रारम्भ होती है। ॐ के स्थूल शरीर (सूक्ष्म शरीर गुरु तत्व के प्रतीक श्वेत-रक्त मंडल तथा कारण शरीर परमात्म-तत्व के प्रतीक पीत-श्याम मंडल द्वारा संकेतित) तथा संयोजक के प्रतीक पीत षट्कोण के अधोकोणस्थ 卐 (सामीप्य-प्रतीक) संयोजक पीठ है। किसी संयोजक के सम्पर्क में आने पर संयोजक समिति की सदस्यता का प्रत्याशी पिंड ब्रह्मांडात्मक ‘भूर्भूवःस्वः’ के साथ ॐ को प्राथमिक महत्व देना स्वीकार करता हुआ कहता है-‘ॐ भूर्भूवःस्वः’।

पीत षट्कोण के यज्ञदानात्मक द्वितीय तृतीय कोण द्वारा संकेतित गायत्री के प्रथम पाद (ॐ वरेण्य है) का साक्षात्कार करता हुआ साधक कहता है-‘तत्सविर्तुवरेण्यं’ ओर संयोजक समिति की सदस्यता तथा संयोजकत्व के पश्चात संतुलन समिति की सदस्यता प्राप्त कर लेता है।

पीत षट्कोण के तपात्मक चतुर्थ कोण द्वारा संकेतित गायत्री के द्वितीय पाद (हम भूर्भुवःस्वः रूप पिण्ड-ब्रह्मांडात्मक, ॐ के, भर्ग का ध्यान धारणा करते हैं) का साक्षात्कार करता हुआ साधक कहता है-‘भर्गो देवस्य धीमहि’ और संतुलन समिति का संयोजकत्व प्राप्त कर लेता है, क्योंकि उसे अपनी संतुलन समिति के गठन के लिए सदस्य प्राप्त हो चुकता है।

पीत षट्कोण के संग और फल-त्यागरूप (गीता-18:6) द्विविध साहिष्णुतात्मक पंचम-षष्ट कोण द्वारा संकेतित गायत्री के तृतीय पाद (वह ध्यान, धारण हमारी बुद्धियों को प्रेरित करता है) का साक्षात्कार करता हुआ साधक कहता है ‘धियो यो नः प्रचोदयात्’ और अंतरंग-समिति की सदस्यता प्राप्त करके संयोजक पीठ (卐) पर पहुँच जाता है, जो पूर्व संयोजक द्वारा अंतरंग-समिति का संयोजक-पद प्राप्त कर लेने से रिक्त हो गया। यहां से वह अपनी संतुलन समिति और संयोजक समिति के सदस्य की प्रगति के लिए तब तक प्रयत्न करता है, जब तक उसकी संतुलन समिति का सदस्य उसकी अंतरंग समिति का सदस्य नहीं बन जाता।

पीत षट्कोणस्थ ॐ द्वारा संकेतित ‘सारूप्य’ स्थिति का साक्षात्कार करने के पश्चात् साधक अंतरंग समिति का संयोजक पद प्राप्त करके अंतरंगपीठ (बहिरंगपीठः 1-बिन्दु, 2-स्वस्तिक) पर पहुँच जाता है, जो पूर्व संयोजक द्वारा ‘सायुज्य’ प्राप्त कर लेने से रिक्त हो गया। अपनी अंतरंग समिति के सदस्य द्वारा अंतरंग समिति का संयोजकत्व प्राप्त कर लेने पर वह कहता है ‘स्वाहा’ तथा ‘सायुज्य’ प्राप्त कर लेता है। ‘साजुज्य’ प्राप्ति के पूर्व संयोजक दस तक व्यक्तियों को अपनी संयोजक/संतुलन/अंतरंग समिति में सम्मिलित करता है।

गीतायन-यंत्र सिद्ध यंत्र है और इसके द्वारा की गई उपासना से यथा-समय सहज ही हमारे व्यक्तित्व में क्रांतिकारी रूपान्तरण सम्भव है।

परिशिष्ट

गीतायन यंत्र पंच रूपात्मक है – (1) प्रस्तुत रूप (2) तीन मंडल, दो षट्कोण, पाँच प्रतीक (3) तीन मंडल, दो षट्कोण (4) प्रकाश पुंज (5) शून्य।

शून्य से प्रारंभ होता है, अर्थात् बिना किसी आधार के प्रारंभ करना है। प्रकाश पुंज, अर्थात् अपनी बुद्धि काम करती है। तीन मंडल, दो षट्कोण, अर्थात् स्वयं (स्वाहा मंडल-भूः), परमात्मा (बिन्दु मंडल-स्वः), गुरुतत्व (स्वस्तिक मंडल-भुवः) और सहायक तत्व-एक, संयोजक मित्र (ॐ-पीला षट्कोण) दो, सदस्य मित्र (गीतायन-लाल षट्कोण) ध्यान में आते हैं। फिर इनके प्रतीक सम्मुख आते हैं। जो सबसे संबंधित तत्व हैं – 1. परमात्मा, 2. गुरु तत्व, इनके प्रतीक भाषात्मक नहीं होते। जो व्यक्ति से संबंधित हैं – 1. संयोजक मित्र 2. स्वयं, 3. सदस्य मित्र – इनके प्रतीक भाषात्मक हैं। जो अधिक विकसित है, उसमें भाषा का अंश कम है-संयोजक मित्र के लिए ’ॐ’, स्वयं के लिए ’स्वाहा’, सदस्य मित्र के लिए ’गीतायन’। सहायक तत्वों के प्रतीकों का अतिरिक्त विस्तार आवश्यक नहीं होता, पर मूल तत्वों के प्रतीकों का विस्तार होता है-बिन्दु से त्रिपाद गायत्री, स्वस्तिक से संतुलन तत्व, स्वाहा से व्याहृतियाँ। आगे का विस्तार पूर्ण ज्ञान गर्भा त्रिपाद गायत्री पर आधारित है। संतुलन तत्व तथा व्याहृतियाँ भी त्रिपाद गायत्री से ही संबद्ध हैं। प्रणव (1), व्याहृति (2) और स्वाहा (6) सहित त्रिपाद गायत्री (3) बोलते समय गीतायन यंत्र में ये अंश जहाँ हैं, वहाँ ध्यान करना चाहिए। प्रणव का यज्ञ-दान-तप-सहिष्णुता (4) तथा भूः भुवः स्वः का गीतायन (5) सहित, ध्यान करना चाहिए। धियो योनः प्रचोदयात् के बाद बिन्दु (3) का ध्यान नाभि में, स्वस्तिक (यज्ञ-दान, तप, सहिष्णुता (4) सहित) का ध्यान हृदय में तथा ॐ (1) का ध्यान भ्रूमध्य में करके वहीं स्वाहा (2,6) बोलना है। तदुपरान्त सहस्रार में गीतायन (5) का ध्यान करना होता है।

गायत्री के चौबीस अक्षर चौबीस अंगों (7), दस शब्द दस दिशाओं (9) तथा तीन चरण तीन अंतःकरणों (8) से संबंधित है।

17 सूत्रीय चार्ट के शेष आठ सूत्र निम्नांकित हैं – 1. चक्र स्थान, 2. योगांग, 3. समिति, 4. मुक्ति, 5. स्वाध्याय सामग्री, 6. योग, 7. साधन साध्य, 8. कोश।

14 सूत्रीय चार्ट में 17 सूत्रीय चार्ट के 6 सूत्रों का समावेश नहीं है – 7, 8, 11, 14, 15, 17। शेष का क्रम इस प्रकार हैं – 1. (3,12,13,14), 2. (4,5), 3-5. (11), 6. (3,12,13,14), 9. (2), 10. (6), 12. (9), 13. (10), 16. (7, 8)।

14 सूत्रों में से प्रथम क्रमांक है, शेष 13 को पांच स्तम्भों में निम्नांकित क्रम से दिखाया गया है- 1(6), 2(2,3,4,5,7,8), 3(11,12), 4(9,10,13), 5(14)

14 सूत्रीय चार्ट में परिशिष्ट स्तम्भ में यंत्र की अवरोह की 6 (4 अद्वैत, 2 द्वैत) तथा आरोह की 9 (4 द्वैत, 5 अद्वैत) स्थितियाँ दिखाई गयी हैं। इन्हीं में से आरोह की चार द्वैत तथा एक अद्वैत (सीमित ज्ञान युक्त चैतन्य) की पांच स्थितियों को चौथे स्तम्भ में दिखाया गया है क्योंकि इनका संबंध साधक की सक्रियता से है।

त्रिपाद गायत्री के चरणों का अर्थ दो प्रकार से किया जाता है – 1. चरणों पर आधारित (‘सार्थक जीवन’ के अनुसार), 2. प्रणव व्याहृति पर आधारित (‘गीतायन यंत्र’ के अनुसार)।

गायत्री का प्रथम चरण वरेण्य, द्वितीय चरण भर्ग तथा तृतीय चरण दोनों के संबंधित होने की प्रक्रिया बतलाते हैं।

वरेण्य और भर्ग का वर्गीकरण दो प्रकार से होता है- 1. ब्रह्माण्ड के अनुसार, 2. पिण्ड के अनुसार। वरेण्य और भर्ग में दो अंश है- 1. मुख्यांश, 2. शेषांश।

ॐ सैदव वरेण्य का मुख्यांश तथा गीतायन सदैव भर्ग का मुख्यांश होता है। ब्रह्मांडीय वर्गीकरण के अनुसार भूः भुवः स्वः वरेण्य का शेषांश तथा यज्ञ-दान, तप, सहिष्णुता भर्ग का शेषांश है तथा पिंडीय वर्गीकरण में यज्ञ-दान, तप, सहिष्णुता, वरेण्य का शेषांश तथा भूः भुवः स्वः भर्ग का शेषांश है। ब्रह्मांडीय वर्गीकरण में त्रिपाद गायत्री वरेण्य और भर्ग, किसी में शामिल नहीं है, जबकि पिंडीय वर्गीकरण में वह वरेण्य में सम्मिलित है।

भूः भुवः स्वः जब वरेण्य का शेषांश होता है तो ब्रह्मांड का और जब भर्ग का शेषांश होता है तो बहिरंग समिति के संयोजक का प्रतीक है। यज्ञ-दान, तप,  सहिष्णुता जब वरेण्य का शेषांश होता है तो गुरुतत्व का तथा भर्ग का शेषांश होता है तो बहिरंग समिति (संतुलन समिति) के संयोजक का प्रतीक होता है।

पिंडीय वर्गीकरण में भूः भुवः स्वः में भूः बहिरंग समिति के सदस्य, भुवः बहिरंग समिति के संयोजक तथा स्वः अन्तरंग समिति के सदस्य व संयोजक (ॐ) का प्रतीक है।

भूः की स्थिति प्राप्त होती है तथा स्वः की स्थिति प्राप्त करनी (वरेण्य) होती है। भुवः (भर्ग) के द्वारा वरेण्य की प्राप्ति भर्ग और वरेण्य के शेषांशों के मेल से होती है।

पहले पिंडीय वर्गीकरण के अनुसार साधक (भूर्भुवःस्वः-बहिरंग समिति-संयोजक समिति का संयोजक) वरेण्य के शेषांश-यज्ञ, दान, तप, सहिष्णुता (गुरुतत्व) की सहायता से बहिरंग समिति-संतुलन समिति की संयोजकता-प्राप्त करता है। बाद में ब्रह्मांडीय वर्गीकरण के अनुसार साधक (यज्ञ, दान, तप, सहिष्णुता-बहिरंग समिति-संतुलन समिति का संयोजक) भू: भुवः स्वः को वरेण्य स्वरूप स्वीकार करके अंतरंग समिति की सदस्यता और संयोजकता (ॐ द्वारा संकेतित) प्राप्त करने के बाद अपनी अंतरंग समिति के सदस्य द्वारा अंतरंग समिति की संयोजकता प्राप्त कर लेने पर परमात्मा (श्यामपीत मंडल द्वारा संकेतित) को प्राप्त होता है। यहाँ भू भुवः स्वः वरेण्य की तीन स्थितियों की ओर संकेत करते हैं, जिनसे साधक पिंडीय वर्गीकरण में परिचित हो चुकता है।

यज्ञ-दान, सहिष्णुता द्वारा व्यक्ति संयोजक-समिति, संतुलन-समिति, अंतरंग-समिति की सदस्यता तथा तप द्वारा उनकी संयोजकता प्राप्त करता है।

तप की चार स्थितियाँ होती हैं – 1. गीतायन को गौण महत्व देना, 2. गीतायन को समान महत्व देना, 3. गीतायन को अधिक महत्व देना, 4. गीतायन को एकमात्र महत्व देना।

तप की उच्चतर स्थिति वाले व्यक्ति (संयोजक मित्र) के सत्संग (संवाद) से तप की उच्चतर स्थिति की प्राप्ति संभव होती है।

यज्ञ सहित तप से मानसिक समस्याएँ, दान सहित तप से आर्थिक समस्याएँ तथा सहिष्णुता सहित तप से शेष सब समस्याएँ हल होती हैं।

जैसे परमात्मा से ही सारे संबंध रखना भक्त ठीक मानता है, उसी प्रकार गीतायन के अनुसार संयोजक-सदस्य संबंध ही एकमात्र मान्य संबंध है। इस संबंध पर आधारित परिवार संतुलित परिवार होगा। रक्त पर आधारित परिवार को दोष मुक्त करने के लिए संतुलित विवाह पद्धति द्वारा संतुलित परिवारों का निर्माण वांछनीय है। विवाहित युग्म का साथ रहना आवश्यक हो तो सद्विवाह पद्धति अपनायी जानी चाहिए। (द्रष्टव्य-‘संतुलित परिवार’, ‘संतुलित विवाह पद्धति’, ‘सद्विवाह’, ‘विवाह और परिवार’ पत्रक)

संतुलित विवाह पद्धति

प्रचलित विवाह पद्धतियों के दोषों का निराकरण करने के पश्चात् संतुलन समिति द्वारा एक निर्दोष विवाह पद्धति विकसित की गई है, जिसे संतुलित विवाह पद्धति कहा जा सकता है, क्योंकि व्यक्ति और समाज की संतुलित प्रगति के लिए यह विवाह पद्धति अनिवार्य है। निम्नांकित बातें इस विवाह पद्धति की आधारभूत हैं:-

  • विवाह व्यक्तिगत और प्रजनन सामाजिक कार्य है, अतः विवाह स्वेच्छानुसार किया जा सकता है, पर प्रजनन समाज के निर्देशानुसार और बच्चे के पालन-पोषण का उत्तरदायित्व भी उसी समाज पर होना चाहिए।
  • विवाह बिना परावलम्बन तथा व्यय के होना चाहिए।
  • अनिवार्य परिस्थिति में विवाह विच्छेद की सरल व्यवस्था होनी चाहिए।
  • कृत्रिम शुक्राधान द्वारा सुजनन (यूजेनिक्स) और कामतृप्ति व प्रजनन का विच्छेद उचित है (द्रष्टव्य-आउट ऑफ दी नाइट -एच जे मूलर)
  • जिन बातों को व्यक्ति पर छोड़ा जाना चाहिए उन बातों में हस्तक्षेप करने की अशिष्टता अविवेकी जन करते हैं, पर जिस प्रजनन का समाज से सीधा सम्बन्ध है, उसके सम्बन्ध में समाज के अधिकार और दायित्व की चिन्ता वे नहीं करते। विवाह के बाद भी प्रत्येक प्रजनन के लिए समाज से अनुमति ली जानी चाहिए। जनसंख्या वृद्धि तथा बच्चों के लिए, राष्ट्र और मानवता के संतुलित व्यक्तित्व के सम्पन्न समर्थ कर्णधार बनने का मार्ग प्रशस्त करने की समस्या का यही सर्वोत्तम हल है। इस हल को अपनाने में बाधक प्रचलित नियमों में वैध उपायों से परिवर्तन वांछनीय है।
  • विवाहित युग्म के लिए अपना अलग नया परिवार बनाकर रहना अनिवार्य नहीं होना चाहिए। सामान्यतः विवाह पूर्व के परिवार में तथा कुछ समय विवाहित साथी के साथ अतिथिवत् रहने को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।
  • गर्भ-रोधक साधनों से कामतृप्ति और प्रजनन का विच्छेद अब पूर्णतः संभव है। प्रकृति ने काम की योजना काम-तृप्ति के लिए नहीं, प्रजनन के लिए की है, अतः आशा है, शीघ्र ही कामतृप्ति की ओर हमारी प्रवृत्ति समाप्त हो जायेगी तथा मानव, जीवन की अधिकांश शक्ति को व्यर्थ जाने से बचाकर उसका सदुपयोग करेगा।