हमारी प्रार्थना का भावार्थ

ॐ हम बने सहिष्णु, रहें संतुलित।
व्यक्ति और समाज संबंध है मौलिक,
दोनो ही हो सम्यक् निर्वाहित ।।
हो समाज सुसंगठित।
विभुता सामाजिक श्रम में रहे निहित।।
सम्पत्ति सब रघुपति की होवे।
‘यज्ञ, दान, तप’ कार्यक्रम विहित।।
।।ॐ हम बने सहिष्णु, रहें संतुलित।।

प्रार्थना – शब्द प्र, अर्थ और ना से मिल कर बना है। प्र का अर्थ है प्रकृष्ट है और अर्थ उसे कहते हैं, जिसे हम चाहें। ना प्रत्यय लगने से अर्थना का अर्थ हुआ-चाहना। इस प्रकार प्रार्थना का अर्थ हुआ प्रकृष्ट चाहना। श्रेस्ठतम वस्तु चाहना या कोई वस्तु सर्वाधिक चाहना प्रार्थना है। उक्त प्रार्थना इन दोनो ही अर्थों में प्रार्थना है।

आस्तिक नास्तिक सबके लिए यह प्रार्थना ग्राह्य है। आस्तिक के लिए यह परमात्मा को सम्बोधित कामना है और नास्तिक के लिये स्मरण-गान।

प्रतीकात्मक है। यह आ, इ, उ (मूलस्वर) = आ, उ =ओ + म् (समाहारक) से मिलकर बना है। जैसे भाषा के आधार होने से मूलस्वरों के बिना भाषा असम्भव है, वैसे ही जीवन की आधार होने से जिस सत्ता या मान्यता के बिना जीवन असम्भव है, उसमें अस्था का प्रतीक ॐ है।

हम बने सहिष्णु – सहिष्णु बनना हमारे लिए अनिवार्य है। सभी के प्रति हम सहिष्णु बने। ऐसा होने से ही अभीष्ट पथ पर अग्रसर हुआ जा सकता है। अन्यथा, हमारी सारी शक्ति व्यर्थ संघर्ष में ही समाप्त हो जाएगी।

रहें संतुलित – सीता राम से सामान सहिष्णुता संतुलन संपृक्त है। संतुलन के बिना सहिष्णुता संदिग्ध है। विकलांग है। व्यक्ति के जीवन के मूलत: दो पक्ष होते हैं – १. वैयक्तिक और २. सामाजिक। संतुलन का अर्थ – किसी एक पक्ष को इतना महत्व नहीं देना है कि दूसरे पक्ष की ओर ध्यान नहीं दिया जा सके।           

व्यक्ति और समाज संबंध है मौलिक, दोनो ही हो सम्यक् निर्वाहित – व्यक्ति के वैयक्तिक और सामाजिक जीवन में कोई विरोध नहीं होना चाहिए। इनमे से किसी की भी उपेक्षा नहीं की जा सकती। दोनो का विकास एक ही उद्गम से होता है और दोनो का मूलभूत महत्व है। व्यक्ति को स्वेच्छानुसार जीवन – यापन करते हुए अनिवार्य सामाजिक कर्तव्यों (यज्ञ, दान, तप) का पालन भी करना चाहिए और समाज को अपनी व्यवस्था में व्यक्ति की स्वतंत्रता और विकास का धायन रखना चाहिए।

वैयक्तिक जीवन को व्यक्ति पर छोड़ दिया जाना चाहिए, सामाजिक जीवन के लिए आगे लिखी हुई बातें अनिवार्य हैं-

हो समाज सुसंगठित – सामाजिक जीवन की आधारभूत बात है – उसका सुविचारित संगठन, ऐसा संगठन जिसकी प्रथम इकाइयाँ छोटी (दस तक व्यक्तियों की) हों और क्रमश: बढ़ती जाए, जिससे समाज की विशृंखलता भी दूर हो जाए और प्रत्येक व्यक्ति को अपनी अभिव्यक्ति व विकास का पूर्ण अवसर भी रहे; जिससे प्रतिनिधि चुनने वालों के प्रति उत्तरदायी हों और उनकी इच्छा पर वापस बुलाए जा सकें। अन्यथा, संघठित न रहने पर जैसे शरीर का सम्यक् निर्वाह नहीं हो पता, वेसे ही बिना इस प्रकार के संगठन के  सामाजिक जीवन का सम्यक् निर्वाह असम्भव है।

विभुता सामाजिक श्रम में रहे निहित – परस्पर सहयोग के आधार पर, जैसे सर्वोपयोगी श्रम की समाज की आवश्यकता है वैसे, श्रम को करने वाले श्रमिक जब वैभव – सम्पन्न व सत्तावान् होंगे, तभी सामाजिक संगठन सुस्थायी रह सकता है। अत: सामाजिक जीवन के लिए दूसरी अनिवार्य बात है – सामाजिक श्रम की विभुता। विभुता का अर्थ सामाजिक श्रम की व्यापकता से भी है। अर्थात्, सभी व्यक्ति श्रम करें। अन्यथा, श्रमिकों के सम्पन्न रहते भी विषमता रहेगी, जो अवांछनीय है।

‘सम्पत्ति सब रघुपति की’ होवे – सम्पत्ति पर व्यक्ति – विशेष का स्वामित्व न होकर सबका स्वामित्व होना चाहिए। तभी सामाजिक श्रम विभु बन सकता है। यह सामाजिक जीवन के लिए अंतिम अनिवार्य बात है। हमारी आवश्यकता पूरी करने वाले भौतिक द्रव्य को सम्पत्ति कहा जा सकता है। जब व्यक्ति विशेष सम्पत्ति का भोक्ता न रहकर स्वामी हो जाता है तो सम्पत्ति शोषण का साधन बन जाती है। रघुपाती का अर्थ है – सब (सर्वं खल्विदं ब्रह्म। रघुपती = ब्रह्म)।

सामाजिक जीवन के लिए उपर्युक्त अनिवार्यताओं के अनुसार निम्नांकित विविध कार्यक्रम हैं–

‘यज्ञ, दान, तप’ कार्यक्रम विहित

यज्ञ – यज्ञ का अर्थ है – सत्संपर्क। वैयक्तिक व सामाजिक रूप से प्रार्थना, स्वाधाय, चिंतन, निर्णयादि इसमें सम्मलित हैं। इसके दो भेद किए जा सकते हैं – १. दैनिक (स्थान-एच्छिक) और २. सामाहिक (स्थान-मंदिर, वह स्थान जहाँ प्रार्थना के लिए अन्य व्यक्ति भी आ सकें)। काम से काम साप्ताहिक यज्ञ अवश्य कर्तव्य है। इससे साथियों से सम्पर्क रहता है, जो सामाजिक सुसंगठन के लिए अनिवार्य है। सम्पर्क के इस कार्यक्रम की यह विशेषता है कि आकर्षक कार्यक्रम के बिना भी व्यक्ति निमयमित रूप से इस कार्यक्रम को सफलतापूर्वक चलता रह सकता है।

दान – सम्पत्ति का उत्सर्ग दूसरा सामाजिक कार्यक्रम है। सम्पत्ति रघुपति की है, उस पर एकमात्र मेरा अधिकार नहीं है – यह सोचकर सामाजिक श्रम की विभुता के लिए सामाजिक निधि में अपनी मासिक आय का कम से कम शतांश (१/१००) प्रतिशत और अधिक से अधिक दशमांश (१०/१००) प्रतिशत प्रत्येक व्यक्ति को देते रहना चाहिए।

तप – यह अंतिम सामाजिक कार्यक्रम है। तप का अर्थ है – सामाजिक श्रम। जब सम्पत्ति रघुपति की है, व्यक्ति – विशेष सम्पत्ति का स्वामी ना होकर न्यायानुसार उसका उपभोक्ता मात्र है तो अपनी आवश्यकता – पूर्ति के लिए सर्वोपयोगी श्रम करना व्यक्ति का अनिवार्य कर्त्तव्य हो जाता है। श्रम का शोषण करके मुनाफ़े से या दूसरे द्वारा अर्जित धन से अपना निर्वाह करना संतुलन के अभाव का द्योतक है।

प्रार्थना के प्रथम शब्द (ॐ) में ही पूरी प्रार्थना का सार आ जाता है, पर यह एकाएक स्पष्ट नहीं होता, क्योंकि वह प्रतीकात्मक है। इसलिए, प्रथम पंक्ति को ध्येय-वाक्य के रूप में अंत में पुन: दुहराया गया है।

इस प्रार्थना के अनुसार स्वयं व्यक्ति पर छोड़े गए वैयक्तिक संतुलन के अतिरिक्त प्रत्येक व्यक्ति का कर्तव्य है की वह सहिष्णु बने और सामाजिक रूप से संतुलित ( यज्ञ, दान व तप का करने वाला ) रहे।