जीवन-राग की साधना

जीवन के किसी भी उदान्त क्षेत्र में गहरी प्रगति के लिए पूरे व्यक्तित्व का क्रियाशील होना अनिवार्य है। इस कोटि की क्रियाशीलता ही साधना कहलाती है।

संतुलन, सामंजस्य, लय, या सौंदर्य सृष्टि की प्रत्येक वस्तु की प्रकृति है। विकृति के आवरण को दूर कर किसी वस्तु के प्रकृत रूप को अभिव्यक्त करना साधना का उदान्त लक्ष्य होता है। साधक ही साधना के फल का अधिकारी होता है। पर दर्शक, श्रोता या पाठक भी सीमित आनंद प्राप्त करते हैं। वह सीमित आनंद भी इतना महत्वपूर्ण होता है की वे उसके बदले में शारीरिक या मानसिक दृष्टि से मूल्यवान अपनी सम्पत्ति का न्यूनाधिक भाग साधक को भेंट करते हैं। साधक भी वह भेंट अपने व्यक्तित्व के शारीरिक या मानसिक पक्ष की आवश्यकता-पूर्ति के लिए स्वीकार कर लेता है। पर, साधना से आत्मा को मिलने वाला आनंद ही साधक की सिद्धि है, उसकी अपनी वस्तु है। उसे दिया या लिया नहीं जा सकता।

संगीत (यदि वह संगीत है) में साधना-तत्व अन्य क्षेत्रों की तुलना में अधिक प्रत्यक्ष है, क्योंकि सृष्टि के प्रथम स्पंदन का सहगामी होने के कारण नाद से हमारा सबसे पुराना सम्बंध है।

जब हम जीवन-राग की साधना की बात करते हैं तो स्पष्टतः हमारा अभिप्राय जीवन के संतुलन, सामंजस्य, लय या सौंदर्य की साधना से है। जीवन का उक्त रूप उसका प्रकृत रूप है। साधना के द्वारा ही उसके इस प्रकृत रूप को अभिव्यक्त किया जा सकता है। उससे मिलने वाला आत्मा का निस्सीम आनंद तो साधक की अपनी वस्तु है, उसे दिया या लिया नहीं जा सकता, पर दर्शक, श्रोता या पाठक का प्राप्य भी महत्वपूर्ण है।

विकृत परिस्थितियों में प्रकृत जीवन असम्भव है, अतः बुद्धिमान व्यक्ति परिस्थितियों को ठीक करने पर जोर देते है। परिस्थिति का सर्वाधिक महत्वपूर्ण भाग हमारे चारों ओर का समाज है। उसकी विकृति को दूर किया जा सकता है, यदि हम पहला चरण पहले उठायें।

पहला चरण क्या है? सहिष्णुता। विकृत स्थिति का अपने पर इतना प्रतिकूल न होने देना कि हम विकृति को स्वभाव मान लें। आवरण-वस्त्र बदलने से हमारा प्रिय व्यक्ति नहीं बदल जाता, हमारा स्नेह-सत्कार उसका प्राप्य रहता है।

दूसरा चरण है विकृति-आवरण के कारणों का अन्वेषण और निराकरण। सामन्यतः एक ही कारण सर्वत्र मिलेगा – कुसंग और निराकरण का भी एक ही उपाय होगा – सत्संग। सत्पुरुष, सद्ग्रंथो व सद्विचारो आदि का संग सत्संग है ही, सदुद्देश्य से प्रेरित सामान्य व्यक्तियों के संग की व्यवस्था भी सत्संग है। यदि प्रत्येक व्यक्ति सप्ताह में एक दिन अपने निवास स्थान पर निश्चित समय पर एक घंटे के लिए भी सत्संग के लिए सुलभ रहना अपने जीवन का अंग बनाले तो उस समय सामान्य व्यक्ति ही चाहे सत्संग के लिए आयें पर सदुद्देशय से प्रेरित होने के कारण उस संग का प्रभाव शुभ होगा। यही नहीं, यदि किसी दिन कोई भी व्यक्ति न आये तो भी यह स्मृति ही की हम आज सत्संग के लिए सुलभ हैं, सत्संग का कार्य करेगी। सत्संग की यह सरलतम व्यवस्था है। सभी को इस व्यवस्था का लाभ स्वयं लेना चाहिए तथा अपने सम्पर्क के अन्य व्यक्तियों को भी प्रेरित करना चाहिए।

तीसरा चरण है – आत्माभिव्यक्ति। जो कुछ हमारे निकट है, उसकी अभिव्यक्ति यदि वह अच्छाई है, तो उसकी अभिव्यक्ति शुभ प्रभाव डालने वाली होगी ही, पर यदि वह बुराई है तब भी हमें उस व्यक्ति को समझने में सहायता देगी, जो सुधार के लिए प्राथमिक महत्व की बात है।

चौथा चरण है – अपने अध्ययन का विस्तार। अपने चारों ओर के जीवन का सूक्ष्म अध्ययन तथा दूसरों के अध्ययन की जानकारी निरन्तर करते रहना चाहिए। इससे हमें तो लाभ होगा ही, हमारे सम्पर्क के व्यक्तियों को भी लाभ होगा।

पाँचवां चरण है – प्रार्थना। जिन बातों को हम अपने जीवन में लाना चाहते हैं – उनके लिए प्रार्थना करना। प्रार्थना का अर्थ है – प्रकृष्ट से प्रकृष्ट की प्रकृष्ट कामना।

और छटा तथा अंतिम चरण है – आस्था और प्रतीक्षा। क्योंकि, पूर्वोक्त पाँच चरण उठा चुकने के पश्चात शेष चरण उठाने नहीं पड़ेंगे, स्वतः उठेंगे। हमें केवल अपनी आस्था और प्रतीक्षा को बनाये रखना होगा।

उपर्युक्त क्रम से उठाया गया प्रत्येक चरण आगामी चरण का उठाना सरल भी कर देता है।

हमें विश्वास है कि उपर्युक्त पद्धति से हमें घटक की “जीवन-राग” की साधना श्रध्देय गुरूजनो और स्नेही छात्र समुदाय की शुभ-कामनाओं के संरक्षण में निरन्तर प्रगति करती जाएगी।

– रागी०