ॐ गायत्र्यस्येकपदी द्विपदी त्रिपदी चतुष्पद्यपदसि न हि पद्यसे नमस्ते तुरीयाय दर्शताय पदाय परो रजसेऽसावदो मा प्रापत् ।।वृहदाण्यक, 5-14,7।।
हे गायत्री, तुम प्रथम चरण (तत्सवितुर्वरेण्यं) से एक पदी हो, द्वितीय चरण (तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गोदेवस्य धीमहि) से द्विपदी हो, तृतीय चरण (तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गोदेवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्) से त्रिपदी हो और तुरीय (चतुर्थ) चरण (ॐ भूःर्भुवःस्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्) से चतुष्पदी हो। तुम अपद भी हो, क्योंकि तुम्हारे त्रिगुणातीत रूप की अभिव्यक्ति संभव नहीं है। तुम्हारे दर्शनीय (अनुभव करने योग्य) चतुर्थ पद को, जो रजस् से परे है,नमस्कार है। उसकी प्राप्ति में विघ्न डालने वाले (रजस्, तमस आदि) मुझे प्राप्त न हों।
गायत्री में तीन चरण, चौबीस अक्षर और दस पद हैं। इनका संबंध तीन अंतःकरणों, चौबीस अंगों और दस दिशाओं से है। क्रमिक गायत्री द्वारा गीतायन-यंत्र की सहायता से ध्यान करके तीनों अंतःकरणों, चौबीस अंगों और दस दिशाओं को पवित्र और शक्ति-सम्पन्न किया जाता है। ध्यान के समय यंत्र मुख (स्वस्तिक) पूर्व दिशा में रखा जाता है और उपासक (साधक) उत्तर में बैठता है। पूर्व दिशा में सूर्य उदय होता है, वह ज्ञान की दिशा मानी जाती है और उत्तर दिशा उत्तम मार्ग पर चलने वालों के लिए श्रेष्ठ मानी गई है। नित्य गुरु शिव का कैलासधाम उत्तर में है। शिवलिंग की जलहरी का मुख सदैव उत्तर की ओर रहता है। साधक इस दिशा से अपनी साधना प्रारंभ करता है। यंत्रमुख बताता है कि हमारा लक्ष्य क्या है, हमें कहाँ पहुँचना है और प्रतीक (शिवलिंग) मुख बताता है कि हमें कहाँ से प्रारंभ करना है। शिवलिंग यज्ञ-वेदी और अग्नि का, ब्रह्माण्ड और पिंड का, आकाश और सूर्य का, भगवान और भक्त आदि का प्रतीक है। गीतायन-यंत्र द्वारा इस प्रतीक की व्याख्या प्रस्तुत की गई है।
जब हम भूः (प्रकृति) की स्थिति में ‘धियों यो नः प्रचोदयात् स्वाहा’ बोलते हैं तो नाभि में यंत्र के प्रस्तुत रूप का ध्यान करते हैं। इससे मन-अंतःकरण, नीचे के नाभि तक आठ अंग और उत्तर, ईशान, ऊर्ध्व व भूमि दिशाएं वरेण्य (ॐ) के भर्ग से युक्त हो जाते हैं। इसमें धर्म के चार चरणों में से सहिष्णुता-चरण सहायक होता है।
जब हम भुवः (प्रगति) की स्थिति में… ‘भर्गो देवस्य धीमहि स्वाहा’ बोलते हैं तो हृदय में यंत्र के तीन मंडल, दो षट्कोण और पांच प्रतीकों का ध्यान करते हैं। इससे अहंकार, अंतःकरण, नाभि से लेकर मुख तक के मध्य के आठ अंग और नैऋत्य, पश्चिम और वायव्य दिशाएँ वरेण्य (ॐ) के भर्ग से युक्त हो जाते है। इसमें तप सहायक होता है।
जब हम स्वः (पूर्णता) की स्थिति में… ‘तत्सवितुर्वरेण्यं स्वाहा’ बोलते हैं तो भ्रूमध्य में यंत्र के दो षट्कोण, तीन मंडल का ध्यान करते हैं। इससे बुद्धि-अंतःकरण, ऊपर के आठ अंग और पूर्व, आग्नेय व दक्षिण दिशाएँ वरेण्य (ॐ) के भर्ग से युक्त हो जाते है। इसमें यज्ञ-दान सहायक होते हैं।
जब हम ‘भूः भुवः स्वः स्वाहा’ बोलते हैं, तब भी भ्रूमध्य में ही यंत्र का ज्योतिर्लिंग के रूप में ध्यान करते हैं और पूर्वोक्त अंतःकरणों, अंगों व दिशाओं को समग्र रूप से वरेण्य (ॐ) के भर्ग से युक्त अनुभव करते हैं। इसमें धर्म के चारों चरण समग्ररूप से सहायक होते हैं।
जब हम ‘ॐ स्वाहा’ बोलते हैं तो सहस्रार में स्वाहा की स्थिति में समाधिस्थ होते हैं। यह त्रिगुणातीत स्थिति है।
यह ध्यान का आरोह क्रम है। इसे बाद अवरोह क्रम में हम वापस आते हैं। आरोह में हम स्थूल से सूक्ष्म की ओर जाते हैं और अवरोह में सीमित से विस्तार की ओर।