रक्त पर आधारित परिवार आज की परिस्थितियों में असुविधाजनक होने के कारण विघटित होते जा रहे हैं। अब तो यही हो सकता है कि हम जहां रहें, अपने साथ और आसपास के लोगों में रुचि पर आधारित पारिवारिक भावना का विकास करें। पारिवारिक भावना का आधार कर्तव्य नहीं, रुचि होना चाहिये। यह आवश्यक नहीं है कि परिवार का आधार विवाहित दम्पत्ति हो। परिवार में सभी पुरुष हो सकते हैं, सभी स्त्रियां हो सकती है और पुरूष-स्त्री दोनों हो सकते हैं, पर उनमें काम सम्बन्ध अवांछनीय ही है। सामाजिक संगठन की पहली इकाई (स्वाध्याय गोष्ठी-गीतायन यज्ञ) के सदस्य जब एक साथ रहने लगें, जो निकटतर साथी की आवश्यकता के कारण होता है, तो इसी को पारिवारिक इकाई नाम दिया जाना चाहिए।
यह सोचना ठीक नहीं है कि युवक, वृद्धों और बच्चों के साथ रहना पसन्द नहीं करेंगे। यह सोचना भी ठीक नहीं है कि व्यक्ति समाज द्वारा सौंपे गये शिशुपालन आदि कामों को, रुचि व योग्यता के अनुकूल होने पर भी, अच्छी तरह नहीं करेगा। इस व्यवस्था से समाज का खर्चा कुछ बढ़ जायेगा, पर होने वाले लाभ को देखते हुए वह वांछनीय होगा। पूंजीवादी पद्धति में होने वाले अपव्यय की समाप्ति से उक्त बढ़े हुए खर्च की व्यवस्था सरलता से हो जायेगी। परिवार की सामान्य आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए ‘पारिवारिक कोष’ होना चाहिए, जिसमें परिवार के सभी वयस्क सदस्य समान अंश दें। ‘‘गीतायन’’ की सन्तुलन समिति द्वारा स्वीकृत उक्त आधार पर निर्मित परिवार ‘संतुलित परिवार’ कहे जा सकते हैं, क्योंकि व्यक्ति और समाज की संतुलित प्रगति के लिए इस प्रकार के परिवार आधारभूत हैं।