उपासना द्वारा उपासक उपास्य से तादात्म्य प्राप्त करता है। तान्त्रिक उपासना-पद्धति क्रान्तिकारी एवं वैज्ञानिक उपासना पद्धति है। उसमें उपासना के लिये यन्त्र का उपयोग होता है, जिसमें मन्त्र सुनियोजित ढंग से लिखा होता है। ‘गायत्री छन्दसामहं’ कहकर श्री गीतेश्वरी ने गायत्री-मंत्र के सर्वोपरि महत्व को स्वीकार किया है। गीतायन यंत्र में गायत्री मंत्र की स्थिति श्री गीतेश्वरी के निर्देशानुसार है।
गीतायन-यंत्र में तीन मण्डल और दो षट्कोण हैं। प्रथम सबसे बड़ा मण्डल परमात्मा का, द्वितीय उससे छोटा मण्डल गुरुतत्व (गायत्री/गीता/बुद्धि) का, तृतीय सबसे छोटा मण्डल साधक का, प्रथम बड़ा षट्कोण गुरुतत्व का प्रतिनिधित्व करने वाले संयोजक-मित्र (सम्पृक्तों में से वह मित्र, जिसे आपने लाभ लेने की दृष्टि से सबसे अधिक उपयुक्त माना है) का तथा द्वितीय छोटा षट्कोण साधक को संयोजकत्व तथा अपने संयोजक-मित्र लाभ उठा सकने की योग्यता प्रदान करने वाले सदस्य-मित्र (सम्पृक्तों में से वह मित्र, जिसे आपने लाभ देने की दृष्टि से सबसे अधिक उपयुक्त माना है) का प्रतीक है।
तृतीय सबसे छोटा मण्डल साधक की संयोजक-पद-प्राप्ति-अथवा सदस्यत्व की पूर्णता तथा द्वितीय उससे बड़ा मण्डल संयोजक के गुरु तत्व से ‘सायुज्य’ अथवा संयोजकत्व की पूर्णता का द्योतक है। प्रथम सबसे बड़ा मण्डल पूर्णता रूप परमात्मा का व्यंजक है, जिसमें पूर्ण ज्ञान गर्भा त्रिपाद गायत्री अंकित हैं। ॐ तथा बड़े षट्कोण का पीत वर्ण वरेण्यता का एवं गीतायन तथा छोटे षट्कोण का रक्त वर्ण भर्ग का सूचक है। पीत षट्कोण के अंक में भूर्भुवःस्वः (ब्रह्मांड) रूप मंडल मूलतः श्याम वर्ण का है, पर रक्त वर्ण गीतायन से मिलकर भूरा हो गया है, जो गायत्री का वर्ण है। यज्ञ-दान-तप-सहिष्णुता रूप गीतायन भर्ग गुलाबी मण्डल पीत षट्कोण को आयत्त किये हुए है तथा सबसे बड़े श्याम पीत मण्डल को स्पर्श कर रहा है।
रक्त षट्कोण का अधोमुख त्रिकोण भागवत कृपा रूप गुरुतत्व का तथा ऊर्घ्वमुख त्रिकोण साधक का प्रतीक है। ऊर्ध्वमुख त्रिकोण की आधार भुजा साधक की, दक्षिण भुजा संयोजक-मित्र की तथा वाम भुजा सदस्य मित्रकी प्रतीक है। अधोमुख त्रिकोण की आधार भुजा गुरुतत्व की, दक्षिण भुजा परमात्मा की तथा वाम भुजा संयोजक परम्परा की प्रतीक है। जिस मात्रा में हम अपने सदस्य मित्र की प्रगति में रुचि लेते हैं, उसी मात्रा में हमें संयोजक मित्र का लाभ मिलता है। दोनों त्रिकोणों का मिलन सिद्धावस्था का सूचक है।
परमात्मा तथा श्री गीतेश्वरी की युगनद्धावस्था के प्रतीक पीत वर्ण षट्कोण में पीतवर्ण ॐ उपास्य का प्राचीनतम वाचक है। इसका उच्चारण करते समय इसके अर्थस्वरूप रक्तवर्ण गीतायन तत्व का स्मरण होना चाहिये, जिसका बोध श्री गीतेश्वरी एवं उपासक के प्रतीक दो रक्त वर्ण युगनद्ध त्रिकोणों द्वारा कराया गया है। पीतवर्ण षट्कोण के अंक में ब्रह्मांड के प्रतीक श्याम-रक्त मण्डल में ‘भूः’, ‘भुवः’, ‘स्वः’, उपास्य की तीन स्थितियों-प्रकृति, प्रगति ओर पूर्णता, तथा ‘स्वाहा’ उनकी उपास्य में युगनद्ध स्थिति के भी द्योतक हैं, जो ‘सहिष्णुता’, ‘तप’ और ‘यज्ञ-दान’ लक्षणों तथा 卐 – स्वस्तिक (लक्षणों की युगनद्ध स्थिति) से युक्त गुलाबी प्रभा मण्डल तथा वर्द्धमान पीत त्रिकोण द्वय से मंडित है। बहिरंग श्याम-पीत वर्तुल में प्रथम पाद (तत्सवितुर्वरेण्यं) केन्द्रस्थ श्याम-रक्त वर्तुल सहित ॐ, द्वितीय पाद (भर्गोदेवस्य धीमहि) केन्द्रस्थ वर्तुल के चतुर्दिक गुलाबी प्रभा-मंडल सहित गीतायन तथा तृतीय पाद (धियो योनः प्रचोदयात्) उपासक तथा श्री गीतेश्वरी की युगनद्ध स्थिति की ओर इंगित करते हैं। प्रथम पाद के उच्चारण के समय जो उपास्य साध्य था, वह तृतीय पाद के उच्चारण के समय सिद्ध हो जाता है। बहिरंग वर्तुल के चतुर्दिक नीलवर्ण, यन्त्र को दिव्य आकाश में उदित ‘सविता’ का स्वरूप प्रदान करता है।
गायत्री के तीन पादों, चौबीस अक्षरों तथा दस पदों का सम्बन्ध तीन अंतः करणों, चौबीस अंगों तथा दस दिशाओं से है-प्रथम पाद बुद्धि अंतःकरण; मस्तक, भाल, चक्षु, श्रोत्र, नासापुट, कपाल, अधरोष्ठ तथा ऊर्ध्वोष्ठ अंगों तथा प्राची, आग्नेय तथा दक्षिण दिशाओं; द्वितीय पाद अहंकार-अंतःकरण; मुख, कपोल, कंठ, स्कन्ध, दक्षिण हस्त, वाम हस्त, हृदय तथा जठर अंगो एवं नैऋति, प्रतीची तथा वायव्य दिशाओं और तृतीय पाद मन-अंत-करण; नाभि, कटि, गुह्य, ऊरु, जानु, जंघा, गुल्फ और पाद-युग्म अंगों एवं उदीची, ईशान, ऊर्ध्व एवं भूमि दिशाओं से सम्बन्धित है। ‘स्वाहा’ कहते समय शिवलिंग (उपासना के लिऐ यंत्र का सुविधाजनक प्रतीक) पर जलाहुति देते हुए सम्बन्धित ‘चक्र’ में यन्त्र का ध्यान करने से सम्बन्धित अंतःकरण, अंग तथा दिशाएँ ‘गीतायन’ सूर्य के ‘भर्ग’ से युक्त हो जाते हैं। गुह्य या नाभि तृतीय पाद से, हृदय द्वितीय पाद से तथा भू्र प्रथम पाद से सम्बन्धित चक्र हैं। ॐ का सम्बन्ध सहस्त्रार चक्र से है। उक्त चक्रों में यन्त्र की स्थिति 卐 (स्वस्तिक) के अनुसार आरोह तथा अवरोह काल में क्रमशः वाम, ऊर्ध्व, दक्षिण, अधः; दक्षिण, ऊर्ध्व, वाम तथा अधः मुख रहती है। उपासना काल में उपासक दक्षिण-मुख बैठता है, जिससे प्रतीक-मुख उसकी ओर रहता है तथा यन्त्र को वाम-मुख रखा जाता है जिससे अंतःकरण, अंगो {यंत्र ऊर्ध्व (vertical) रूप में} तथा दिशाओं {यंत्र क्षैतिज (horizontal) रूप में} में मंत्र न्यास के समय अनुकूलता रहती है। उपासना ‘चक्र’ में संयोजक उपासक मित्र दायीं और तथा सदस्य उपासक मित्र बायीं ओर बैठते हैं। मंत्र न्यास में सुविधा के लिए उपासना ‘दिगम्बर’ या ‘कंचुक’ में करने का प्रावधान है। देह-भाव के ऊपर उठने वाले उपासक को उसमें असुविधा असंगत है।
गीतायन यंत्र के अधोबिन्दु (सालोक्य प्रतीक) से व्यक्ति की साधना प्रारम्भ होती है। ॐ के स्थूल शरीर (सूक्ष्म शरीर गुरु तत्व के प्रतीक श्वेत-रक्त मंडल तथा कारण शरीर परमात्म-तत्व के प्रतीक पीत-श्याम मंडल द्वारा संकेतित) तथा संयोजक के प्रतीक पीत षट्कोण के अधोकोणस्थ 卐 (सामीप्य-प्रतीक) संयोजक पीठ है। किसी संयोजक के सम्पर्क में आने पर संयोजक समिति की सदस्यता का प्रत्याशी पिंड ब्रह्मांडात्मक ‘भूर्भूवःस्वः’ के साथ ॐ को प्राथमिक महत्व देना स्वीकार करता हुआ कहता है-‘ॐ भूर्भूवःस्वः’।
पीत षट्कोण के यज्ञदानात्मक द्वितीय तृतीय कोण द्वारा संकेतित गायत्री के प्रथम पाद (ॐ वरेण्य है) का साक्षात्कार करता हुआ साधक कहता है-‘तत्सविर्तुवरेण्यं’ ओर संयोजक समिति की सदस्यता तथा संयोजकत्व के पश्चात संतुलन समिति की सदस्यता प्राप्त कर लेता है।
पीत षट्कोण के तपात्मक चतुर्थ कोण द्वारा संकेतित गायत्री के द्वितीय पाद (हम भूर्भुवःस्वः रूप पिण्ड-ब्रह्मांडात्मक, ॐ के, भर्ग का ध्यान धारणा करते हैं) का साक्षात्कार करता हुआ साधक कहता है-‘भर्गो देवस्य धीमहि’ और संतुलन समिति का संयोजकत्व प्राप्त कर लेता है, क्योंकि उसे अपनी संतुलन समिति के गठन के लिए सदस्य प्राप्त हो चुकता है।
पीत षट्कोण के संग और फल-त्यागरूप (गीता-18:6) द्विविध साहिष्णुतात्मक पंचम-षष्ट कोण द्वारा संकेतित गायत्री के तृतीय पाद (वह ध्यान, धारण हमारी बुद्धियों को प्रेरित करता है) का साक्षात्कार करता हुआ साधक कहता है ‘धियो यो नः प्रचोदयात्’ और अंतरंग-समिति की सदस्यता प्राप्त करके संयोजक पीठ (卐) पर पहुँच जाता है, जो पूर्व संयोजक द्वारा अंतरंग-समिति का संयोजक-पद प्राप्त कर लेने से रिक्त हो गया। यहां से वह अपनी संतुलन समिति और संयोजक समिति के सदस्य की प्रगति के लिए तब तक प्रयत्न करता है, जब तक उसकी संतुलन समिति का सदस्य उसकी अंतरंग समिति का सदस्य नहीं बन जाता।
पीत षट्कोणस्थ ॐ द्वारा संकेतित ‘सारूप्य’ स्थिति का साक्षात्कार करने के पश्चात् साधक अंतरंग समिति का संयोजक पद प्राप्त करके अंतरंगपीठ (बहिरंगपीठः 1-बिन्दु, 2-स्वस्तिक) पर पहुँच जाता है, जो पूर्व संयोजक द्वारा ‘सायुज्य’ प्राप्त कर लेने से रिक्त हो गया। अपनी अंतरंग समिति के सदस्य द्वारा अंतरंग समिति का संयोजकत्व प्राप्त कर लेने पर वह कहता है ‘स्वाहा’ तथा ‘सायुज्य’ प्राप्त कर लेता है। ‘साजुज्य’ प्राप्ति के पूर्व संयोजक दस तक व्यक्तियों को अपनी संयोजक/संतुलन/अंतरंग समिति में सम्मिलित करता है।
गीतायन-यंत्र सिद्ध यंत्र है और इसके द्वारा की गई उपासना से यथा-समय सहज ही हमारे व्यक्तित्व में क्रांतिकारी रूपान्तरण सम्भव है।
परिशिष्ट
गीतायन यंत्र पंच रूपात्मक है – (1) प्रस्तुत रूप (2) तीन मंडल, दो षट्कोण, पाँच प्रतीक (3) तीन मंडल, दो षट्कोण (4) प्रकाश पुंज (5) शून्य।
शून्य से प्रारंभ होता है, अर्थात् बिना किसी आधार के प्रारंभ करना है। प्रकाश पुंज, अर्थात् अपनी बुद्धि काम करती है। तीन मंडल, दो षट्कोण, अर्थात् स्वयं (स्वाहा मंडल-भूः), परमात्मा (बिन्दु मंडल-स्वः), गुरुतत्व (स्वस्तिक मंडल-भुवः) और सहायक तत्व-एक, संयोजक मित्र (ॐ-पीला षट्कोण) दो, सदस्य मित्र (गीतायन-लाल षट्कोण) ध्यान में आते हैं। फिर इनके प्रतीक सम्मुख आते हैं। जो सबसे संबंधित तत्व हैं – 1. परमात्मा, 2. गुरु तत्व, इनके प्रतीक भाषात्मक नहीं होते। जो व्यक्ति से संबंधित हैं – 1. संयोजक मित्र 2. स्वयं, 3. सदस्य मित्र – इनके प्रतीक भाषात्मक हैं। जो अधिक विकसित है, उसमें भाषा का अंश कम है-संयोजक मित्र के लिए ’ॐ’, स्वयं के लिए ’स्वाहा’, सदस्य मित्र के लिए ’गीतायन’। सहायक तत्वों के प्रतीकों का अतिरिक्त विस्तार आवश्यक नहीं होता, पर मूल तत्वों के प्रतीकों का विस्तार होता है-बिन्दु से त्रिपाद गायत्री, स्वस्तिक से संतुलन तत्व, स्वाहा से व्याहृतियाँ। आगे का विस्तार पूर्ण ज्ञान गर्भा त्रिपाद गायत्री पर आधारित है। संतुलन तत्व तथा व्याहृतियाँ भी त्रिपाद गायत्री से ही संबद्ध हैं। प्रणव (1), व्याहृति (2) और स्वाहा (6) सहित त्रिपाद गायत्री (3) बोलते समय गीतायन यंत्र में ये अंश जहाँ हैं, वहाँ ध्यान करना चाहिए। प्रणव का यज्ञ-दान-तप-सहिष्णुता (4) तथा भूः भुवः स्वः का गीतायन (5) सहित, ध्यान करना चाहिए। धियो योनः प्रचोदयात् के बाद बिन्दु (3) का ध्यान नाभि में, स्वस्तिक (यज्ञ-दान, तप, सहिष्णुता (4) सहित) का ध्यान हृदय में तथा ॐ (1) का ध्यान भ्रूमध्य में करके वहीं स्वाहा (2,6) बोलना है। तदुपरान्त सहस्रार में गीतायन (5) का ध्यान करना होता है।
गायत्री के चौबीस अक्षर चौबीस अंगों (7), दस शब्द दस दिशाओं (9) तथा तीन चरण तीन अंतःकरणों (8) से संबंधित है।
17 सूत्रीय चार्ट के शेष आठ सूत्र निम्नांकित हैं – 1. चक्र स्थान, 2. योगांग, 3. समिति, 4. मुक्ति, 5. स्वाध्याय सामग्री, 6. योग, 7. साधन साध्य, 8. कोश।
14 सूत्रीय चार्ट में 17 सूत्रीय चार्ट के 6 सूत्रों का समावेश नहीं है – 7, 8, 11, 14, 15, 17। शेष का क्रम इस प्रकार हैं – 1. (3,12,13,14), 2. (4,5), 3-5. (11), 6. (3,12,13,14), 9. (2), 10. (6), 12. (9), 13. (10), 16. (7, 8)।
14 सूत्रों में से प्रथम क्रमांक है, शेष 13 को पांच स्तम्भों में निम्नांकित क्रम से दिखाया गया है- 1(6), 2(2,3,4,5,7,8), 3(11,12), 4(9,10,13), 5(14)
14 सूत्रीय चार्ट में परिशिष्ट स्तम्भ में यंत्र की अवरोह की 6 (4 अद्वैत, 2 द्वैत) तथा आरोह की 9 (4 द्वैत, 5 अद्वैत) स्थितियाँ दिखाई गयी हैं। इन्हीं में से आरोह की चार द्वैत तथा एक अद्वैत (सीमित ज्ञान युक्त चैतन्य) की पांच स्थितियों को चौथे स्तम्भ में दिखाया गया है क्योंकि इनका संबंध साधक की सक्रियता से है।
त्रिपाद गायत्री के चरणों का अर्थ दो प्रकार से किया जाता है – 1. चरणों पर आधारित (‘सार्थक जीवन’ के अनुसार), 2. प्रणव व्याहृति पर आधारित (‘गीतायन यंत्र’ के अनुसार)।
गायत्री का प्रथम चरण वरेण्य, द्वितीय चरण भर्ग तथा तृतीय चरण दोनों के संबंधित होने की प्रक्रिया बतलाते हैं।
वरेण्य और भर्ग का वर्गीकरण दो प्रकार से होता है- 1. ब्रह्माण्ड के अनुसार, 2. पिण्ड के अनुसार। वरेण्य और भर्ग में दो अंश है- 1. मुख्यांश, 2. शेषांश।
ॐ सैदव वरेण्य का मुख्यांश तथा गीतायन सदैव भर्ग का मुख्यांश होता है। ब्रह्मांडीय वर्गीकरण के अनुसार भूः भुवः स्वः वरेण्य का शेषांश तथा यज्ञ-दान, तप, सहिष्णुता भर्ग का शेषांश है तथा पिंडीय वर्गीकरण में यज्ञ-दान, तप, सहिष्णुता, वरेण्य का शेषांश तथा भूः भुवः स्वः भर्ग का शेषांश है। ब्रह्मांडीय वर्गीकरण में त्रिपाद गायत्री वरेण्य और भर्ग, किसी में शामिल नहीं है, जबकि पिंडीय वर्गीकरण में वह वरेण्य में सम्मिलित है।
भूः भुवः स्वः जब वरेण्य का शेषांश होता है तो ब्रह्मांड का और जब भर्ग का शेषांश होता है तो बहिरंग समिति के संयोजक का प्रतीक है। यज्ञ-दान, तप, सहिष्णुता जब वरेण्य का शेषांश होता है तो गुरुतत्व का तथा भर्ग का शेषांश होता है तो बहिरंग समिति (संतुलन समिति) के संयोजक का प्रतीक होता है।
पिंडीय वर्गीकरण में भूः भुवः स्वः में भूः बहिरंग समिति के सदस्य, भुवः बहिरंग समिति के संयोजक तथा स्वः अन्तरंग समिति के सदस्य व संयोजक (ॐ) का प्रतीक है।
भूः की स्थिति प्राप्त होती है तथा स्वः की स्थिति प्राप्त करनी (वरेण्य) होती है। भुवः (भर्ग) के द्वारा वरेण्य की प्राप्ति भर्ग और वरेण्य के शेषांशों के मेल से होती है।
पहले पिंडीय वर्गीकरण के अनुसार साधक (भूर्भुवःस्वः-बहिरंग समिति-संयोजक समिति का संयोजक) वरेण्य के शेषांश-यज्ञ, दान, तप, सहिष्णुता (गुरुतत्व) की सहायता से बहिरंग समिति-संतुलन समिति की संयोजकता-प्राप्त करता है। बाद में ब्रह्मांडीय वर्गीकरण के अनुसार साधक (यज्ञ, दान, तप, सहिष्णुता-बहिरंग समिति-संतुलन समिति का संयोजक) भू: भुवः स्वः को वरेण्य स्वरूप स्वीकार करके अंतरंग समिति की सदस्यता और संयोजकता (ॐ द्वारा संकेतित) प्राप्त करने के बाद अपनी अंतरंग समिति के सदस्य द्वारा अंतरंग समिति की संयोजकता प्राप्त कर लेने पर परमात्मा (श्यामपीत मंडल द्वारा संकेतित) को प्राप्त होता है। यहाँ भू भुवः स्वः वरेण्य की तीन स्थितियों की ओर संकेत करते हैं, जिनसे साधक पिंडीय वर्गीकरण में परिचित हो चुकता है।
यज्ञ-दान, सहिष्णुता द्वारा व्यक्ति संयोजक-समिति, संतुलन-समिति, अंतरंग-समिति की सदस्यता तथा तप द्वारा उनकी संयोजकता प्राप्त करता है।
तप की चार स्थितियाँ होती हैं – 1. गीतायन को गौण महत्व देना, 2. गीतायन को समान महत्व देना, 3. गीतायन को अधिक महत्व देना, 4. गीतायन को एकमात्र महत्व देना।
तप की उच्चतर स्थिति वाले व्यक्ति (संयोजक मित्र) के सत्संग (संवाद) से तप की उच्चतर स्थिति की प्राप्ति संभव होती है।
यज्ञ सहित तप से मानसिक समस्याएँ, दान सहित तप से आर्थिक समस्याएँ तथा सहिष्णुता सहित तप से शेष सब समस्याएँ हल होती हैं।
जैसे परमात्मा से ही सारे संबंध रखना भक्त ठीक मानता है, उसी प्रकार गीतायन के अनुसार संयोजक-सदस्य संबंध ही एकमात्र मान्य संबंध है। इस संबंध पर आधारित परिवार संतुलित परिवार होगा। रक्त पर आधारित परिवार को दोष मुक्त करने के लिए संतुलित विवाह पद्धति द्वारा संतुलित परिवारों का निर्माण वांछनीय है। विवाहित युग्म का साथ रहना आवश्यक हो तो सद्विवाह पद्धति अपनायी जानी चाहिए। (द्रष्टव्य-‘संतुलित परिवार’, ‘संतुलित विवाह पद्धति’, ‘सद्विवाह’, ‘विवाह और परिवार’ पत्रक)