गीतायन-तंत्र

बोधमय नित्यगुरु शिव गीतायन की तीन (संयोजक, संतुलन, अंतरंग) समितियों के तंत्र-त्रिशूल द्वारा जीवन की व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक- शारीरिक, आर्थिक मानसिक समस्याओं के त्रिपुरासुर का वध करते हैं।

हमें व्यक्तिगत, पारिवारिक या सामाजिक किसी भी प्रकार की (शारीरिक, आर्थिक या मानसिक) परेशानी है तो हम प्रकृति का कोई नियम तोड़ रहे हैं। समस्या यह है कि हमें कैसे पता लगे कि हम अमुक नियम तोड़ रहे हैं। यदि हम किसी अन्य व्यक्ति से यह अपेक्षा रखते हैं कि वह हमें बतायेगा, तो हम अपनी ऊर्जा नष्ट ही करेंगे। यह कार्य प्रकृति ही करती है। उसने हमारी ज्ञानेन्द्रियों को बहिर्मुखी बनाया है। किसी के बोलने पर ही हम सुन पाते हैं, अतः प्रकृति से मार्गदर्शन प्राप्त करने के लिए हमें अपने अतिरिक्त एक व्यक्ति की आवश्यकता है।

अपने सम्पर्क के किसी भी एक व्यक्ति को हम अपनी रुचि के अनुसार एतदर्थ चुन लें और सप्ताह में एक दिन उसके यहां जाकर हम उसकी बात सुनें और अपनी कहें। इसी प्रकार यदि किसी ने आपको चुना है, तो आप उससे एक दिन अपने यहां सुनें/कहें और यथासम्भव उसके यहां जाकर भी उससे सुनें/कहें। यदि उपस्थित व्यक्तियों की संख्या दो से अधिक है तो भी दो ही माननी चाहिये, एक संयोजक और एक उसके यहां जाने वाला सदस्य/ संयोजक/असंबद्ध व्यक्ति विशेष। बिना वक्ता की अनुमति के बीच में न बोला जाय। वक्ता को कितनी देर बोलना है, यह संयोजक तय करेगा। वक्ता को मार्गदर्शन देने के लिए नहीं बोलना है। उसे यह बताना है कि वह अपने लिए क्या ठीक मानता है, चाहता है, करता है तथा उपलब्ध किया है। इस प्रकार वक्ता अपने वक्तव्य द्वारा श्रोता को आत्म-परिचय देता है। श्रोता वक्तव्य के बाद कोई बात स्पष्ट करने के लिए प्रश्न पूछ सकता है और सहमत होने पर सहयोग कर सकता है। दोनों की इच्छा दूसरे को अपने से सहमत कराने की नहीं होनी चाहिए, मात्र अपने से परिचित कराना और दूसरे से परिचित होना तथा इस प्रक्रिया में स्वयं अपने से और अधिक परिचित होना ही उद्देश्य होना चाहिए। शेष स्वतः होगा।

हर व्यक्ति अपने अनुभवों के अनुसार जाग्रत विवेक के आधार पर कुछ बातों को सही और कुछ को गलत मानता है। उसका दायित्व है कि वह सही बातों को यथासम्भव बढ़ावा दे। इसके लिए अपने सम्पर्क में आने वाले व्यक्तियों से चर्चा होनी चाहिए, और गीतायन-तंत्र द्वारा सही बात को बढ़ावा देने हेतु सर्व-सुलभ सहयोगी-स्वावलम्बन पर आधारित कदम भी उठाया जाना चाहिए।

व्यक्ति जो भी करता है, उसका श्रेय या दायित्व उसी व्यक्ति का है।

हमारे द्वारा प्रकृति के एक बुनियादी नियम का भंग होता है, जिससे हमें तनाव का सामना करना पड़ता है, हम शेष ब्रह्माण्ड से अपने को अलग मानते हैं। परिणामतः, दूसरों के सुख-दुख में हमारी रुचि नहीं होती, हम केवल अपने सुख-दुख में ही रुचि लेते हैं। कभी-कभी हम सबके प्रति शुभ कामना रखने के बजाय किसी के प्रति अशुभ कामना भी रखते हैं, यहाँ तक कि हम उसको हानि पहुंचाने के प्रयास से भी अपने को रोक नहीं पाते। अक्षमतम व्यक्ति भी सबके प्रति शुभकामना तो रख ही सकता है। एक दिन अपने यहां स्वाध्याय-गोष्ठी का संयोजन अपनी रुचि के अनुसार करके तथा एक दिन अपने संयोजक की स्वाध्याय गोष्ठी में भाग लेकर और अपने सम्पर्क में आने वाले व्यक्तियों को तदर्थ प्रेरित करके हम सबके प्रति शुभकामना को सहज ही क्रियात्मक रूप देना प्रारम्भ कर सकते हैं।

किसी को यह कहने का अवसर नहीं मिलना चाहिए कि उन तक ‘गीतायन’ का संदेश पहुंचा ही नहीं, नहीं तो वे अवश्य सहयोग करते। हम अपने सम्पर्क में आने वालों को गीतायन यज्ञ का स्वरूप समझायें तथा गीतायन-यज्ञ का स्वयं भी संयोजन करने हेतु प्रेरित करें, क्योंकि केवल दूसरे द्वारा संयोजित गीतायन-यज्ञ में सम्मिलित होने से वांछित लाभ नहीं होगा। गीतायन-यज्ञ-संयोजकों को प्रारम्भ से ही स्पष्ट कर देना वांछनीय है कि लोग गीतायन यज्ञ में अपनी रुचि व सुविधा के अनुसार सम्मिलित होंगे। एक स्थान पर अधिक संख्या एकत्र करने पर बल देने की बिल्कुल आवश्यकता नहीं हैं, उन्हीं लोगों को एकत्र होना वांछित लाभकारी होगा जो स्वयं भी गीतायन यज्ञ के संयोजक हैं और गीतायन यज्ञ में सुविधानुसार पहुँचते हैं।