सत्ये लोक: प्रतिष्ठित:

प्रायः ऐसा देखा जाता है कि सत्य का आचरण करने वालों को कष्ट उठाना पड़ता है और असत्य का आचरण करने वाले सुख से जीवन व्यतीत करते हैं। पर ऐसा स्थूल दृष्टि से ही लगता है। सत्याचरण से जो आत्मिक तृप्ति मिलती है, उसके सामने सारे भौतिक सुख फीके हैं तथा असत्य का आचरण करने वाला आत्मा के सुख से वंचित रह कर भौतिक सुख सुविधाओं का अभाव न रहने पर भी अतृप्त रहता है।

सत्याचरण से मिलने वाले आत्मिक सुख का स्वाद ज्ञात न होने से ही मनुष्य सुख सुविधाओं के अभाव के भय से सत्य विमुख होता है। संसार में जो भी सुख-सुविधायें उपलब्ध हैं, वे सत्याचरण के कारण ही हैं। यह ठीक है कि सत्य का आचरण न करने वाले व्यक्ति उन सुख-सुविधाओं का लाभ अधिक उठा लेते हैं और यदि सत्याचरण अधिक हो तो, संसार में सुख-सुविधाओं की अधिक उपलब्धि सम्भव है।

असंगति का कारण सामाजिक दुर्व्यवस्था, तथा सत्य का आचरण करने वालों में व्यवहार कौशल और सत्य की व्यापक कल्पना न होना है। जैसा लगता है, वैसा ही वाणी से प्रकट करना सत्य का संकीर्ण अर्थ है और जैसा है वैसा जान कर उसका आचरण करना सत्य का व्यापक अर्थ है।

व्यापक अर्थ में व्यवहार कुशल बनने तथा सामाजिक व्यवस्था ठीक करने का प्रयास करना तथा अन्य सभी कर्त्तव्य सम्मिलित हैं। अपने संकीर्ण अर्थ में भी सत्य का बुनियादी महत्व है, क्योंकि उससे वास्तविकता सामने आती है, जो यदि सही है तो प्रगति और ग़लत है तो सुधार को सम्भव बनाती है।

सत्य में ही लोक प्रतिष्ठित है, हमें असंगतियो की शिकायत करने तथा सुख-सुविधाओं के अभाव के भय से सत्य विमुख होने की अपेक्षा व्यवहार-कुशल बनने और सामाजिक व्यवस्था को ठीक करने का प्रयास करना चाहिए तथा सत्याचरण की तृप्ति का स्वाद लेना चाहिए।