संतुलित-परिवार

रक्त पर आधारित परिवार आज की परिस्थितियों में असुविधाजनक होने के कारण विघटित होते जा रहे हैं। अब तो यही हो सकता है कि हम जहां रहें, अपने साथ और आसपास के लोगों में रुचि पर आधारित पारिवारिक भावना का विकास करें। पारिवारिक भावना का आधार कर्तव्य नहीं, रुचि होना चाहिये। यह आवश्यक नहीं है कि परिवार का आधार विवाहित दम्पत्ति हो। परिवार में सभी पुरुष हो सकते हैं, सभी स्त्रियां हो सकती है और पुरूष-स्त्री दोनों हो सकते हैं, पर उनमें काम सम्बन्ध अवांछनीय ही है। सामाजिक संगठन की पहली इकाई (स्वाध्याय गोष्ठी-गीतायन यज्ञ) के सदस्य जब एक साथ रहने लगें, जो निकटतर साथी की आवश्यकता के कारण होता है, तो इसी को पारिवारिक इकाई नाम दिया जाना चाहिए।

यह सोचना ठीक नहीं है कि युवक, वृद्धों और बच्चों के साथ रहना पसन्द नहीं करेंगे। यह सोचना भी ठीक नहीं है कि व्यक्ति समाज द्वारा सौंपे गये शिशुपालन आदि कामों को, रुचि व योग्यता के अनुकूल होने पर भी, अच्छी तरह नहीं करेगा। इस व्यवस्था से समाज का खर्चा कुछ बढ़ जायेगा, पर होने वाले लाभ को देखते हुए वह वांछनीय होगा। पूंजीवादी पद्धति में होने वाले अपव्यय की समाप्ति से उक्त बढ़े हुए खर्च की व्यवस्था सरलता से हो जायेगी। परिवार की सामान्य आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए ‘पारिवारिक कोष’ होना चाहिए, जिसमें परिवार के सभी वयस्क सदस्य समान अंश दें। ‘‘गीतायन’’ की सन्तुलन समिति द्वारा स्वीकृत उक्त आधार पर निर्मित परिवार ‘संतुलित परिवार’ कहे जा सकते हैं, क्योंकि व्यक्ति और समाज की संतुलित प्रगति के लिए इस प्रकार के परिवार आधारभूत हैं।

विचार सूत्र

वर्तमान स्थिति क्या हमें सह्य है? यदि है, तो हम परम सहिष्णु हैं। सहिष्णुता दो प्रकार की होती है-1) संतुलित और 2) असंतुलित। जो असन्तुलित-सहिष्णु हैं, वे मनुष्य नहीं हैं-उनकी बात हम छोड़ दें। जो संतुलित-सहिष्णु हैं, वे आदर्श हैं। उनके सम्बन्घ में भी कुछ सोचने की आवश्यकता नहीं है। असहिष्णुता भी दो प्रकार की होती है-1) सन्तुलित और 2) असन्तुलित। संतुलित-असहिष्णु असहिष्णुता के कारण को दूर करने में लगे हुए हैं, अतः उनके लिए भी चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं हैं। चिन्तनीय हैं-असंतुलित-असहिष्णु।

सन्तुलन जीवन का अनिवार्य तत्व है। गोष्ठी (यज्ञ), कोष (दान), श्रम (तप) और सहिष्णुता, सन्तुलन के बुनियादी साधन हैं। इनमें गोष्ठी का स्थान प्रथम है। एतदनुसार प्रत्येक व्यक्ति को सप्ताह में एक दिन अपने निवास स्थान पर गोष्ठी के लिए सुलभ रहना चाहिए और उसके द्वारा सहज रूप से सम्पर्क में आने वाले महानुभावों को सप्ताह में एक दिन अपने निवास स्थान पर गोष्ठी के लिए सुलभ रहने की प्रेरणा मिलनी चाहिए। सप्ताह में एक दिन अपने निवास स्थान पर गोष्ठी के लिए सुलभ रहने वाले मित्रों को वैसे अन्य मित्रों की गोष्ठियों आदि की सूचना उन मित्रों या गीतायन (अधिकृत सूचना केन्द्र का वैकल्पिक अमिधान, जिसका औचित्य सृष्टि-गीता या विश्व-गीत की गति (अयन) से समंजस (सन्तुलित) जीवन का प्रचारक होने में है) से प्राप्य है। जिन मित्रों का सत्संग (गोष्ठी)-लाभ अभीप्सित है, उनके लिए अपनी गोष्ठी के नियन्त्रण गीतायन द्वारा या सीधे उन मित्रों को भेज दिये जाते हैं। उन मित्रों के निमन्त्रण भी गीतायन द्वारा या सीधे यथा समय निमंत्री मित्र को मिल जाते है। निमंत्रित मित्र सुविधानुसार निमंत्री मित्रों का सत्संग लाभ लेते हैं – विशेषतः अपनी गोष्ठी में आने वाले निमंत्रित मित्रों का। यह आशा रखी जाती है कि प्रत्येक मित्र कम से कम एक मित्र-गोष्ठी में अवश्य नियमित रूप से भाग लेगा। वह उस गोष्ठी का सदस्य होता है। किसी गोष्ठी की सदस्य संख्या 10 तक हो सकती है। गोष्ठियों का सहयोजन दशक-पद्धति से होता है। गोष्ठी में उपस्थित मित्र आत्माभिव्यक्ति करते हैं।

सन्तुलन का दूसरा बुनियादी साधन है-कोष। एतदनुसार प्रत्येक मित्र को अपनी मासिक आय का कम से कम शतांश प्रतिशत (1/100 प्रतिशत) और अधिक से अधिक दशमांश प्रतिशत (1/10 प्रतिशत) अगले माह की 7 तारीख तक नगद या प्रो-नोट के रूप में उस गोष्ठी के कोष में देना चाहिए, जिसका वह सदस्य है। कोष का विनियोग गोष्ठी-समिति (सन्तुलन समिति) दाता की सम्मति से करती है। विनियोग प्रायः ऋण के रूप में होता है। ऋण पर ब्याज नहीं लिया जाता।

सन्तुलन का तीसरा बुनियादी साधन है-श्रम। एतदनुसार प्रत्येक मित्र को अपनी आजीविका के लिये अपनी रूचि का समाज-सम्मत कार्य प्रामाणिकता- पूर्वक करना चाहिए।

सन्तुलन का अंतिम साधन है-सहिष्णुता

सार्थक जीवन

मनुष्य चाहता है कि वह काम के समान सुन्दर, सूर्य के समान प्रतापी, चन्द्रमा के समान सौम्य-शील, गणेश के समान प्रतिष्ठित, हरिश्चन्द्र के समान सच्चा, ब्रह्मा के समान बड़ा, इन्द्र के समान विषय सुखों से सना हुआ राजा, शुक सा मुनि, शारदा सा वक्ता, और लोमश से भी चिरजीवी हो; पर तुलसीदास जी कहते हैं कि यदि राजीव-लोचन ‘राम’ को नहीं जाना तो ऐसे होने से क्या?

तुलसी ने राम को इतना महत्व क्यों दिया है ?

क्योंकि राम की तुलना में कामदेव का सौन्दर्य, सूर्य का प्रताप, चन्द्र का शील, गणेश की प्रतिष्ठा, हरिश्चन्द्र की सचाई, ब्रह्मा का बड़प्पन, इन्द्र का राजत्व, शुकदेव का मुनित्व, शारदा का वक्तृत्व और लोमश ऋषि का चिर जीवन नगण्य है। राम में समस्त गुण पूर्णता को प्राप्त हैं। राम अनश्वर हैं। रावण के नाश के लिए दशरथ के यहां उनका अवतार उनके अनन्त देश-काल के अनन्त अवतारों में से एक है। जब जब धर्म की ग्लानि और अधर्म का अभ्युत्थान होता है, वे अवतार लेते हैं। उनके अवतार की कलाएं एक से सोलह तक होती हैं। मूढ़ व्यक्ति उनकी अवमानना करते हैं। राक्षसों और असुरों की तामसी प्रकृति वाले उन अज्ञानियों की आशा, कर्म और ज्ञान निरर्थक हैं। दैवी प्रकृति वाले, नित्ययुक्त, समर्पण-भावी और दृढ़व्रती महात्मा जन उन्हें सबका आदि और अव्यय जानकर अनन्य मन से सतत कीर्तन और यत्न करते हुए भक्ति पूर्वक उनकी उपासना करते हैं और मुक्ति प्राप्त करते हैं। जहां भी हमें कोई गुण दिखाई दे, वहां राम अभिव्यक्त हो रहे हैं-ऐसा जानना चाहिए। राम सर्वत्र हैं, अर्थात् गुण सर्वत्र हैं। राम को राजीव लोचन कहकर तुलसीदास जी ने उनका ज्ञान स्वरूप होना स्पष्ट कर दिया है।

ऐसे राम को तुलसी ने इतना महत्व उचित ही दिया है । उसे कैसे जाना जाय-इसका उत्तर भी उन्होंने दिया है- राम-नाम रूपी मणि-दीपक को मुख रूपी द्वार की जीभ रूपी देहरी पर रखो ।

राम भीतर भी हैं और बाहर भी हैं, तो उनके जानने के लिए भीतर और बाहर दोनों ओर प्रकाश चाहिए। द्वार में देहरी पर रखा हुआ दीपक भीतर और बाहर दोनों ओर प्रकाश करता है। जीभ पर नाम, साधक के मन और बाहर के वातावरण, दोनों को प्रकाशित करेगा। राम गुणरूप हैं और सर्वत्र हैं, अतः गुण-स्मरण और गुण-कथन ही राम-नाम की साधना है ।

नाम-साधना की सफलता के लिए वाणी की पवित्रता अनिवार्य है, इसलिए तुलसीदास जी विमल सलिला (ज्ञान) गंगा का स्तवन करते हैं-महेश्वर का मस्तक आपका निवास है, नभ, पाताल, धरती तीनों पथों से प्रवाहित होती हुई आप सुशोभित हैं, आप सुर, नर, मुनि, नाग, सिद्ध और सुजन गण की मंगल विधायिका हैं, दर्शन से दुःख, दोष, पाप, संताप और दारिद्र्य का दलन करने वाली हैं, सगरपुत्रों की सांसत का शमन तथा जल निधि को जल से परिपूर्ण करने वाली हैं तथा अनेक त्रिदेवों को महिमा की अवधि बना देने वाली भी आप ही हैं-मेरी वाणी को अपने निर्मल जल के अनुरूप निर्मल करिये।

गायत्री उपासक इसी निर्मल जल का तीन बार आचमन करते हुए कहते हैं-ॐ; भूः, भुवः, स्वः (सर्वत्र व्याप्त); ‘उस’ सूर्य देवता के वरेण्य भर्ग को (हम) धारण करते हैं, जो हमारी बुद्धियों को प्रेरित करता है; स्वाहा ।

इसी निर्मल जल से शरीर के विभिन्न अंगो पर ‘‘न्यास’’ किया जाता है-‘तत्’ मूर्द्धा भाग की, ‘स’ भाल, ‘वि’ चक्षु, ‘तु’ श्रोत्र, ‘व’ नासापुट, ‘रे’ कपाल, ‘णि’ अधरोष्ठ, ‘य’ ऊर्ध्व ओष्ठ, ‘भ’ मुख, ‘गो’ कपोल, ‘दे’ कंठ, ‘व’ स्कन्ध, स्य दक्षिणहस्त, ‘धी’ वाम हस्त, ‘म’ हृदय, ‘हि’ जठर, ‘धि’ नाभि, ‘यो’ कटिद्वय, ‘यो’ गुह्य, ‘नः’ ऊरू, ‘प्र’ जानु, ‘चो’ जंघा, ‘द’ गुल्फ और ‘यात्’ वर्ण चरण देश की रक्षा करे। जातवेदा, त्र्यम्बका, दशाक्षरा, वेदजननी और अनघा गायत्री मेरे सर्वांग की सर्वदा रक्षा करें।

इसी निर्मल जल से दिशाओं में न्यास किया जाता है- ‘तत्’ प्राची दिशा के लिए, ‘सवितुः’ ‘आग्नेय’, ‘वरेण्यं’ दक्षिण, ‘भर्गो’ नैऋति, ‘देवस्य’ प्रतीची, ’धीमहि’ वायव्य, ’धियो’ उदीची, ’यो’ ईशान, ’नः’ ऊर्ध्व और प्रचोदयात् भूमि के लिए नमस्कार।

पवित्रता के साथ शक्ति-युक्त होना भी साधना के लिये अनिवार्य है, इसलिये साधक दैवी शक्ति का आवाहन करता है-अक्षर-स्वरूपा, ब्रह्मवादिनी, वेदमाता, ब्रह्मयोनि और वरदा देवी गायत्री, आपको नमस्कार है, आप पधारें।

वह उन्हें आसन प्रदान करता है-परमेश्वरि, मेरे द्वारा रम्य, सुशोभन, दिव्य सर्व सौख्यकर और शुभ आसन समर्पित है, ग्रहण करें।

इतनी पूर्व तैयारी के पश्चात् साधक प्रणव, व्याहृति सहित त्रिपाद गायत्री का क्रमानुसार ध्यान करता है-ॐ, भूर्भुवः स्वः, तत्सवितुर्वरेण्यं, भर्गो देवस्य धीमहि, धियो योनः प्रचोदयात्, स्वाहा। ॐ, भुर्भुवः स्वः, तत्सवितुर्वरेण्यं, भर्गो देवस्य धीमहि, स्वाहा। ॐ, भूर्भुवः स्वः, तत्सवितुर्वरेण्यं, स्वाहा। ॐ, भूर्भुवः स्वः, स्वाहा। ॐ स्वाहा। मौन। ॐ स्वाहा। ॐ, भूर्भुवः स्वः स्वाहा। ॐ, भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं, स्वाहा। ॐ, भूर्भुवः स्वः, तत्सवितुर्वरेण्यं, भर्गो देवस्य धीमहि, स्वाहा। ॐ, भूर्भुवः स्वः, तत्सवितुर्वरेण्यं, भर्गो देवस्य धीमहि, धियो योनः प्रचोदयात्, स्वाहा।

परिणाम स्वरूप साधक अर्जुन के समान परमेश्वर के विराट् रूप के दर्शन करता है और कह उठता है-हृषिकेश! उचित है कि आपकी कीर्ति का गान करके जगत् हर्षित और अनुरक्त होता है, डरे हुए राक्षस भागते हैं और समस्त सिद्ध-संघ प्रणाम करते हैं। महात्मन् ! वे आपको प्रणाम क्यों न करें-आप आदिकर्ता ब्रह्मा से भी बडे़, अनन्त, देवेश, जगन्निवास, अक्षर, सत्, असत् और जो उनसे परे तत्व है, वह भी, हैं। आप आदिदेव, पुराण-पुरूष, इस विश्व के परं निधान, ज्ञाता, ज्ञेय और परंधाम है तथा अनन्तरूप, आपसे विश्व व्याप्त है। वायु, यम, अग्नि, वरुण शशी, प्रजापति, प्रपितामह इस चराचर लोक के पिता, पूज्य और सर्वश्रेष्ठ गुरू आप ही हैं। अमित प्रभाव! तीनों लोकों में अधिक क्या, कोई आपके समान भी नहीं है। अनन्त सामर्थ्य और अमित पराक्रमशाली आप सबको सम्प्राप्त हैं, अतः ‘सर्व’ है। सर्वेश! आपको सब ओर से सहस्रबार, बार-बार, नमस्कार।

इस विराट-दर्शन के पश्चात् सबके प्रति मैत्री भावना स्वाभाविक है, अतः साधक कामना करता है- मुझे सब मित्र की दृष्टि से देखें, मैं सबको मित्र की दृष्टि से देखता हूँ।

यहाँ तुलसीदास जी के शब्दों में मित्र गुणों का स्मरण वांछनीय ही है-श्रुति कहती है कि संत मित्र के गुण ये हैंः विपत्ति-काल में उसका स्नेह सौगुना होता है, वह कुपथ से हटाकर सुपथ पर चलाता है, गुण प्रकट करता है और अवगुण छिपाता है, देते-लेते समय मने में संकोच नहीं करता, बल का अनुमान करके सदा हित-साधन करता है, अपना पर्वत के समान दुःख मिट्टी के समान और मित्र का मिट्टी के समान दुःख मेरू पर्वत के समान जानता हैं। जिनकी सहज ही ऐसी मति नही है, वे शठ क्यों हठ करके मित्रता करते हैं? जो मित्र के दुःख से दुःखी होते, उनको देखने में भी बड़ा पातक है। जो सामने बनाकर मृदु वचन कहते हैं, पर पीछे अहित करते हैं, मन से कुटिल हैं- जिनके चित की गति सर्प के समान है-ऐसे कुमित्र का त्याग देने में ही भलाई है।

ऐसी मैत्री-भावना के प्रसार के लिए जीवन में ‘संतुलन’ अनिवार्य होने से साधक प्रार्थना करता है “ॐ, हम सहिष्णु बनें और सतुलित रहें। व्यक्ति और समाज के संबंध मौलिक हैं-दोनों का सम्यक् निर्वाह हो। समाज सुसंगठित हो, सामाजिक श्रम विभु बने, सब सम्पत्ति ‘रघुपति’ की हो और तदर्थ ‘यज्ञ’ ‘दान’ और ‘तप’ कार्यक्रम हो।”

प्रार्थना के साथ उसके विचार-सूत्र का मनन वाछंनीय है ही। तदुपरान्त साधक ऋग्वेद के संगठन-सूक्त का स्मरण ‘आशीर्वाद’ के रूप में करता है-साथ चलो, साथ बोलो, साथ मनन करो, पूर्वज देवताओं के समान सम्पत्ति का साथ उपभोग करों। तुम्हारी सामर्थ्य हृदय और मन संगठित हो, जिससे तुम चरम सौम्य लाभ कर सको।

अब उपासना के लिये जिस शक्ति का आवाहन किया गया था, उसका विसर्जन किया जाता है – देवि, ब्राह्मणों से अनुज्ञात, उत्तम शिखरों वाले पर्वतों के शीर्ष-भाग की भूमि पर सुख पूर्वक पधारें ।

अंत में अर्घ्य-दान के रूप में, सर्वस्व समर्पित करके, उपासक उपास्य का प्रसाद प्राप्त करता है, और अपने को कृत-कृत्य अनुभव करता है-ॐ, सहस्र किरण, तेज-पुंज, जगत्पति, दिवाकर सूर्य, भक्तिपूर्वक दिये गये अर्घ्य को स्वीकार कर मुझ पर अनुकम्पा करें।

इस प्रकार उपासना द्वारा जो ‘राम’ का जान लेता है- उसी का जीवन सार्थक है।

हमारी प्रार्थना का भावार्थ

ॐ हम बने सहिष्णु, रहें संतुलित।
व्यक्ति और समाज संबंध है मौलिक,
दोनो ही हो सम्यक् निर्वाहित ।।
हो समाज सुसंगठित।
विभुता सामाजिक श्रम में रहे निहित।।
सम्पत्ति सब रघुपति की होवे।
‘यज्ञ, दान, तप’ कार्यक्रम विहित।।
।।ॐ हम बने सहिष्णु, रहें संतुलित।।

प्रार्थना – शब्द प्र, अर्थ और ना से मिल कर बना है। प्र का अर्थ है प्रकृष्ट है और अर्थ उसे कहते हैं, जिसे हम चाहें। ना प्रत्यय लगने से अर्थना का अर्थ हुआ-चाहना। इस प्रकार प्रार्थना का अर्थ हुआ प्रकृष्ट चाहना। श्रेस्ठतम वस्तु चाहना या कोई वस्तु सर्वाधिक चाहना प्रार्थना है। उक्त प्रार्थना इन दोनो ही अर्थों में प्रार्थना है।

आस्तिक नास्तिक सबके लिए यह प्रार्थना ग्राह्य है। आस्तिक के लिए यह परमात्मा को सम्बोधित कामना है और नास्तिक के लिये स्मरण-गान।

प्रतीकात्मक है। यह आ, इ, उ (मूलस्वर) = आ, उ =ओ + म् (समाहारक) से मिलकर बना है। जैसे भाषा के आधार होने से मूलस्वरों के बिना भाषा असम्भव है, वैसे ही जीवन की आधार होने से जिस सत्ता या मान्यता के बिना जीवन असम्भव है, उसमें अस्था का प्रतीक ॐ है।

हम बने सहिष्णु – सहिष्णु बनना हमारे लिए अनिवार्य है। सभी के प्रति हम सहिष्णु बने। ऐसा होने से ही अभीष्ट पथ पर अग्रसर हुआ जा सकता है। अन्यथा, हमारी सारी शक्ति व्यर्थ संघर्ष में ही समाप्त हो जाएगी।

रहें संतुलित – सीता राम से सामान सहिष्णुता संतुलन संपृक्त है। संतुलन के बिना सहिष्णुता संदिग्ध है। विकलांग है। व्यक्ति के जीवन के मूलत: दो पक्ष होते हैं – १. वैयक्तिक और २. सामाजिक। संतुलन का अर्थ – किसी एक पक्ष को इतना महत्व नहीं देना है कि दूसरे पक्ष की ओर ध्यान नहीं दिया जा सके।           

व्यक्ति और समाज संबंध है मौलिक, दोनो ही हो सम्यक् निर्वाहित – व्यक्ति के वैयक्तिक और सामाजिक जीवन में कोई विरोध नहीं होना चाहिए। इनमे से किसी की भी उपेक्षा नहीं की जा सकती। दोनो का विकास एक ही उद्गम से होता है और दोनो का मूलभूत महत्व है। व्यक्ति को स्वेच्छानुसार जीवन – यापन करते हुए अनिवार्य सामाजिक कर्तव्यों (यज्ञ, दान, तप) का पालन भी करना चाहिए और समाज को अपनी व्यवस्था में व्यक्ति की स्वतंत्रता और विकास का धायन रखना चाहिए।

वैयक्तिक जीवन को व्यक्ति पर छोड़ दिया जाना चाहिए, सामाजिक जीवन के लिए आगे लिखी हुई बातें अनिवार्य हैं-

हो समाज सुसंगठित – सामाजिक जीवन की आधारभूत बात है – उसका सुविचारित संगठन, ऐसा संगठन जिसकी प्रथम इकाइयाँ छोटी (दस तक व्यक्तियों की) हों और क्रमश: बढ़ती जाए, जिससे समाज की विशृंखलता भी दूर हो जाए और प्रत्येक व्यक्ति को अपनी अभिव्यक्ति व विकास का पूर्ण अवसर भी रहे; जिससे प्रतिनिधि चुनने वालों के प्रति उत्तरदायी हों और उनकी इच्छा पर वापस बुलाए जा सकें। अन्यथा, संघठित न रहने पर जैसे शरीर का सम्यक् निर्वाह नहीं हो पता, वेसे ही बिना इस प्रकार के संगठन के  सामाजिक जीवन का सम्यक् निर्वाह असम्भव है।

विभुता सामाजिक श्रम में रहे निहित – परस्पर सहयोग के आधार पर, जैसे सर्वोपयोगी श्रम की समाज की आवश्यकता है वैसे, श्रम को करने वाले श्रमिक जब वैभव – सम्पन्न व सत्तावान् होंगे, तभी सामाजिक संगठन सुस्थायी रह सकता है। अत: सामाजिक जीवन के लिए दूसरी अनिवार्य बात है – सामाजिक श्रम की विभुता। विभुता का अर्थ सामाजिक श्रम की व्यापकता से भी है। अर्थात्, सभी व्यक्ति श्रम करें। अन्यथा, श्रमिकों के सम्पन्न रहते भी विषमता रहेगी, जो अवांछनीय है।

‘सम्पत्ति सब रघुपति की’ होवे – सम्पत्ति पर व्यक्ति – विशेष का स्वामित्व न होकर सबका स्वामित्व होना चाहिए। तभी सामाजिक श्रम विभु बन सकता है। यह सामाजिक जीवन के लिए अंतिम अनिवार्य बात है। हमारी आवश्यकता पूरी करने वाले भौतिक द्रव्य को सम्पत्ति कहा जा सकता है। जब व्यक्ति विशेष सम्पत्ति का भोक्ता न रहकर स्वामी हो जाता है तो सम्पत्ति शोषण का साधन बन जाती है। रघुपाती का अर्थ है – सब (सर्वं खल्विदं ब्रह्म। रघुपती = ब्रह्म)।

सामाजिक जीवन के लिए उपर्युक्त अनिवार्यताओं के अनुसार निम्नांकित विविध कार्यक्रम हैं–

‘यज्ञ, दान, तप’ कार्यक्रम विहित

यज्ञ – यज्ञ का अर्थ है – सत्संपर्क। वैयक्तिक व सामाजिक रूप से प्रार्थना, स्वाधाय, चिंतन, निर्णयादि इसमें सम्मलित हैं। इसके दो भेद किए जा सकते हैं – १. दैनिक (स्थान-एच्छिक) और २. सामाहिक (स्थान-मंदिर, वह स्थान जहाँ प्रार्थना के लिए अन्य व्यक्ति भी आ सकें)। काम से काम साप्ताहिक यज्ञ अवश्य कर्तव्य है। इससे साथियों से सम्पर्क रहता है, जो सामाजिक सुसंगठन के लिए अनिवार्य है। सम्पर्क के इस कार्यक्रम की यह विशेषता है कि आकर्षक कार्यक्रम के बिना भी व्यक्ति निमयमित रूप से इस कार्यक्रम को सफलतापूर्वक चलता रह सकता है।

दान – सम्पत्ति का उत्सर्ग दूसरा सामाजिक कार्यक्रम है। सम्पत्ति रघुपति की है, उस पर एकमात्र मेरा अधिकार नहीं है – यह सोचकर सामाजिक श्रम की विभुता के लिए सामाजिक निधि में अपनी मासिक आय का कम से कम शतांश (१/१००) प्रतिशत और अधिक से अधिक दशमांश (१०/१००) प्रतिशत प्रत्येक व्यक्ति को देते रहना चाहिए।

तप – यह अंतिम सामाजिक कार्यक्रम है। तप का अर्थ है – सामाजिक श्रम। जब सम्पत्ति रघुपति की है, व्यक्ति – विशेष सम्पत्ति का स्वामी ना होकर न्यायानुसार उसका उपभोक्ता मात्र है तो अपनी आवश्यकता – पूर्ति के लिए सर्वोपयोगी श्रम करना व्यक्ति का अनिवार्य कर्त्तव्य हो जाता है। श्रम का शोषण करके मुनाफ़े से या दूसरे द्वारा अर्जित धन से अपना निर्वाह करना संतुलन के अभाव का द्योतक है।

प्रार्थना के प्रथम शब्द (ॐ) में ही पूरी प्रार्थना का सार आ जाता है, पर यह एकाएक स्पष्ट नहीं होता, क्योंकि वह प्रतीकात्मक है। इसलिए, प्रथम पंक्ति को ध्येय-वाक्य के रूप में अंत में पुन: दुहराया गया है।

इस प्रार्थना के अनुसार स्वयं व्यक्ति पर छोड़े गए वैयक्तिक संतुलन के अतिरिक्त प्रत्येक व्यक्ति का कर्तव्य है की वह सहिष्णु बने और सामाजिक रूप से संतुलित ( यज्ञ, दान व तप का करने वाला ) रहे।

जीवन-राग की साधना

जीवन के किसी भी उदान्त क्षेत्र में गहरी प्रगति के लिए पूरे व्यक्तित्व का क्रियाशील होना अनिवार्य है। इस कोटि की क्रियाशीलता ही साधना कहलाती है।

संतुलन, सामंजस्य, लय, या सौंदर्य सृष्टि की प्रत्येक वस्तु की प्रकृति है। विकृति के आवरण को दूर कर किसी वस्तु के प्रकृत रूप को अभिव्यक्त करना साधना का उदान्त लक्ष्य होता है। साधक ही साधना के फल का अधिकारी होता है। पर दर्शक, श्रोता या पाठक भी सीमित आनंद प्राप्त करते हैं। वह सीमित आनंद भी इतना महत्वपूर्ण होता है की वे उसके बदले में शारीरिक या मानसिक दृष्टि से मूल्यवान अपनी सम्पत्ति का न्यूनाधिक भाग साधक को भेंट करते हैं। साधक भी वह भेंट अपने व्यक्तित्व के शारीरिक या मानसिक पक्ष की आवश्यकता-पूर्ति के लिए स्वीकार कर लेता है। पर, साधना से आत्मा को मिलने वाला आनंद ही साधक की सिद्धि है, उसकी अपनी वस्तु है। उसे दिया या लिया नहीं जा सकता।

संगीत (यदि वह संगीत है) में साधना-तत्व अन्य क्षेत्रों की तुलना में अधिक प्रत्यक्ष है, क्योंकि सृष्टि के प्रथम स्पंदन का सहगामी होने के कारण नाद से हमारा सबसे पुराना सम्बंध है।

जब हम जीवन-राग की साधना की बात करते हैं तो स्पष्टतः हमारा अभिप्राय जीवन के संतुलन, सामंजस्य, लय या सौंदर्य की साधना से है। जीवन का उक्त रूप उसका प्रकृत रूप है। साधना के द्वारा ही उसके इस प्रकृत रूप को अभिव्यक्त किया जा सकता है। उससे मिलने वाला आत्मा का निस्सीम आनंद तो साधक की अपनी वस्तु है, उसे दिया या लिया नहीं जा सकता, पर दर्शक, श्रोता या पाठक का प्राप्य भी महत्वपूर्ण है।

विकृत परिस्थितियों में प्रकृत जीवन असम्भव है, अतः बुद्धिमान व्यक्ति परिस्थितियों को ठीक करने पर जोर देते है। परिस्थिति का सर्वाधिक महत्वपूर्ण भाग हमारे चारों ओर का समाज है। उसकी विकृति को दूर किया जा सकता है, यदि हम पहला चरण पहले उठायें।

पहला चरण क्या है? सहिष्णुता। विकृत स्थिति का अपने पर इतना प्रतिकूल न होने देना कि हम विकृति को स्वभाव मान लें। आवरण-वस्त्र बदलने से हमारा प्रिय व्यक्ति नहीं बदल जाता, हमारा स्नेह-सत्कार उसका प्राप्य रहता है।

दूसरा चरण है विकृति-आवरण के कारणों का अन्वेषण और निराकरण। सामन्यतः एक ही कारण सर्वत्र मिलेगा – कुसंग और निराकरण का भी एक ही उपाय होगा – सत्संग। सत्पुरुष, सद्ग्रंथो व सद्विचारो आदि का संग सत्संग है ही, सदुद्देश्य से प्रेरित सामान्य व्यक्तियों के संग की व्यवस्था भी सत्संग है। यदि प्रत्येक व्यक्ति सप्ताह में एक दिन अपने निवास स्थान पर निश्चित समय पर एक घंटे के लिए भी सत्संग के लिए सुलभ रहना अपने जीवन का अंग बनाले तो उस समय सामान्य व्यक्ति ही चाहे सत्संग के लिए आयें पर सदुद्देशय से प्रेरित होने के कारण उस संग का प्रभाव शुभ होगा। यही नहीं, यदि किसी दिन कोई भी व्यक्ति न आये तो भी यह स्मृति ही की हम आज सत्संग के लिए सुलभ हैं, सत्संग का कार्य करेगी। सत्संग की यह सरलतम व्यवस्था है। सभी को इस व्यवस्था का लाभ स्वयं लेना चाहिए तथा अपने सम्पर्क के अन्य व्यक्तियों को भी प्रेरित करना चाहिए।

तीसरा चरण है – आत्माभिव्यक्ति। जो कुछ हमारे निकट है, उसकी अभिव्यक्ति यदि वह अच्छाई है, तो उसकी अभिव्यक्ति शुभ प्रभाव डालने वाली होगी ही, पर यदि वह बुराई है तब भी हमें उस व्यक्ति को समझने में सहायता देगी, जो सुधार के लिए प्राथमिक महत्व की बात है।

चौथा चरण है – अपने अध्ययन का विस्तार। अपने चारों ओर के जीवन का सूक्ष्म अध्ययन तथा दूसरों के अध्ययन की जानकारी निरन्तर करते रहना चाहिए। इससे हमें तो लाभ होगा ही, हमारे सम्पर्क के व्यक्तियों को भी लाभ होगा।

पाँचवां चरण है – प्रार्थना। जिन बातों को हम अपने जीवन में लाना चाहते हैं – उनके लिए प्रार्थना करना। प्रार्थना का अर्थ है – प्रकृष्ट से प्रकृष्ट की प्रकृष्ट कामना।

और छटा तथा अंतिम चरण है – आस्था और प्रतीक्षा। क्योंकि, पूर्वोक्त पाँच चरण उठा चुकने के पश्चात शेष चरण उठाने नहीं पड़ेंगे, स्वतः उठेंगे। हमें केवल अपनी आस्था और प्रतीक्षा को बनाये रखना होगा।

उपर्युक्त क्रम से उठाया गया प्रत्येक चरण आगामी चरण का उठाना सरल भी कर देता है।

हमें विश्वास है कि उपर्युक्त पद्धति से हमें घटक की “जीवन-राग” की साधना श्रध्देय गुरूजनो और स्नेही छात्र समुदाय की शुभ-कामनाओं के संरक्षण में निरन्तर प्रगति करती जाएगी।

– रागी०