मनुष्य चाहता है कि वह काम के समान सुन्दर, सूर्य के समान प्रतापी, चन्द्रमा के समान सौम्य-शील, गणेश के समान प्रतिष्ठित, हरिश्चन्द्र के समान सच्चा, ब्रह्मा के समान बड़ा, इन्द्र के समान विषय सुखों से सना हुआ राजा, शुक सा मुनि, शारदा सा वक्ता, और लोमश से भी चिरजीवी हो; पर तुलसीदास जी कहते हैं कि यदि राजीव-लोचन ‘राम’ को नहीं जाना तो ऐसे होने से क्या?
तुलसी ने राम को इतना महत्व क्यों दिया है ?
क्योंकि राम की तुलना में कामदेव का सौन्दर्य, सूर्य का प्रताप, चन्द्र का शील, गणेश की प्रतिष्ठा, हरिश्चन्द्र की सचाई, ब्रह्मा का बड़प्पन, इन्द्र का राजत्व, शुकदेव का मुनित्व, शारदा का वक्तृत्व और लोमश ऋषि का चिर जीवन नगण्य है। राम में समस्त गुण पूर्णता को प्राप्त हैं। राम अनश्वर हैं। रावण के नाश के लिए दशरथ के यहां उनका अवतार उनके अनन्त देश-काल के अनन्त अवतारों में से एक है। जब जब धर्म की ग्लानि और अधर्म का अभ्युत्थान होता है, वे अवतार लेते हैं। उनके अवतार की कलाएं एक से सोलह तक होती हैं। मूढ़ व्यक्ति उनकी अवमानना करते हैं। राक्षसों और असुरों की तामसी प्रकृति वाले उन अज्ञानियों की आशा, कर्म और ज्ञान निरर्थक हैं। दैवी प्रकृति वाले, नित्ययुक्त, समर्पण-भावी और दृढ़व्रती महात्मा जन उन्हें सबका आदि और अव्यय जानकर अनन्य मन से सतत कीर्तन और यत्न करते हुए भक्ति पूर्वक उनकी उपासना करते हैं और मुक्ति प्राप्त करते हैं। जहां भी हमें कोई गुण दिखाई दे, वहां राम अभिव्यक्त हो रहे हैं-ऐसा जानना चाहिए। राम सर्वत्र हैं, अर्थात् गुण सर्वत्र हैं। राम को राजीव लोचन कहकर तुलसीदास जी ने उनका ज्ञान स्वरूप होना स्पष्ट कर दिया है।
ऐसे राम को तुलसी ने इतना महत्व उचित ही दिया है । उसे कैसे जाना जाय-इसका उत्तर भी उन्होंने दिया है- राम-नाम रूपी मणि-दीपक को मुख रूपी द्वार की जीभ रूपी देहरी पर रखो ।
राम भीतर भी हैं और बाहर भी हैं, तो उनके जानने के लिए भीतर और बाहर दोनों ओर प्रकाश चाहिए। द्वार में देहरी पर रखा हुआ दीपक भीतर और बाहर दोनों ओर प्रकाश करता है। जीभ पर नाम, साधक के मन और बाहर के वातावरण, दोनों को प्रकाशित करेगा। राम गुणरूप हैं और सर्वत्र हैं, अतः गुण-स्मरण और गुण-कथन ही राम-नाम की साधना है ।
नाम-साधना की सफलता के लिए वाणी की पवित्रता अनिवार्य है, इसलिए तुलसीदास जी विमल सलिला (ज्ञान) गंगा का स्तवन करते हैं-महेश्वर का मस्तक आपका निवास है, नभ, पाताल, धरती तीनों पथों से प्रवाहित होती हुई आप सुशोभित हैं, आप सुर, नर, मुनि, नाग, सिद्ध और सुजन गण की मंगल विधायिका हैं, दर्शन से दुःख, दोष, पाप, संताप और दारिद्र्य का दलन करने वाली हैं, सगरपुत्रों की सांसत का शमन तथा जल निधि को जल से परिपूर्ण करने वाली हैं तथा अनेक त्रिदेवों को महिमा की अवधि बना देने वाली भी आप ही हैं-मेरी वाणी को अपने निर्मल जल के अनुरूप निर्मल करिये।
गायत्री उपासक इसी निर्मल जल का तीन बार आचमन करते हुए कहते हैं-ॐ; भूः, भुवः, स्वः (सर्वत्र व्याप्त); ‘उस’ सूर्य देवता के वरेण्य भर्ग को (हम) धारण करते हैं, जो हमारी बुद्धियों को प्रेरित करता है; स्वाहा ।
इसी निर्मल जल से शरीर के विभिन्न अंगो पर ‘‘न्यास’’ किया जाता है-‘तत्’ मूर्द्धा भाग की, ‘स’ भाल, ‘वि’ चक्षु, ‘तु’ श्रोत्र, ‘व’ नासापुट, ‘रे’ कपाल, ‘णि’ अधरोष्ठ, ‘य’ ऊर्ध्व ओष्ठ, ‘भ’ मुख, ‘गो’ कपोल, ‘दे’ कंठ, ‘व’ स्कन्ध, स्य दक्षिणहस्त, ‘धी’ वाम हस्त, ‘म’ हृदय, ‘हि’ जठर, ‘धि’ नाभि, ‘यो’ कटिद्वय, ‘यो’ गुह्य, ‘नः’ ऊरू, ‘प्र’ जानु, ‘चो’ जंघा, ‘द’ गुल्फ और ‘यात्’ वर्ण चरण देश की रक्षा करे। जातवेदा, त्र्यम्बका, दशाक्षरा, वेदजननी और अनघा गायत्री मेरे सर्वांग की सर्वदा रक्षा करें।
इसी निर्मल जल से दिशाओं में न्यास किया जाता है- ‘तत्’ प्राची दिशा के लिए, ‘सवितुः’ ‘आग्नेय’, ‘वरेण्यं’ दक्षिण, ‘भर्गो’ नैऋति, ‘देवस्य’ प्रतीची, ’धीमहि’ वायव्य, ’धियो’ उदीची, ’यो’ ईशान, ’नः’ ऊर्ध्व और प्रचोदयात् भूमि के लिए नमस्कार।
पवित्रता के साथ शक्ति-युक्त होना भी साधना के लिये अनिवार्य है, इसलिये साधक दैवी शक्ति का आवाहन करता है-अक्षर-स्वरूपा, ब्रह्मवादिनी, वेदमाता, ब्रह्मयोनि और वरदा देवी गायत्री, आपको नमस्कार है, आप पधारें।
वह उन्हें आसन प्रदान करता है-परमेश्वरि, मेरे द्वारा रम्य, सुशोभन, दिव्य सर्व सौख्यकर और शुभ आसन समर्पित है, ग्रहण करें।
इतनी पूर्व तैयारी के पश्चात् साधक प्रणव, व्याहृति सहित त्रिपाद गायत्री का क्रमानुसार ध्यान करता है-ॐ, भूर्भुवः स्वः, तत्सवितुर्वरेण्यं, भर्गो देवस्य धीमहि, धियो योनः प्रचोदयात्, स्वाहा। ॐ, भुर्भुवः स्वः, तत्सवितुर्वरेण्यं, भर्गो देवस्य धीमहि, स्वाहा। ॐ, भूर्भुवः स्वः, तत्सवितुर्वरेण्यं, स्वाहा। ॐ, भूर्भुवः स्वः, स्वाहा। ॐ स्वाहा। मौन। ॐ स्वाहा। ॐ, भूर्भुवः स्वः स्वाहा। ॐ, भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं, स्वाहा। ॐ, भूर्भुवः स्वः, तत्सवितुर्वरेण्यं, भर्गो देवस्य धीमहि, स्वाहा। ॐ, भूर्भुवः स्वः, तत्सवितुर्वरेण्यं, भर्गो देवस्य धीमहि, धियो योनः प्रचोदयात्, स्वाहा।
परिणाम स्वरूप साधक अर्जुन के समान परमेश्वर के विराट् रूप के दर्शन करता है और कह उठता है-हृषिकेश! उचित है कि आपकी कीर्ति का गान करके जगत् हर्षित और अनुरक्त होता है, डरे हुए राक्षस भागते हैं और समस्त सिद्ध-संघ प्रणाम करते हैं। महात्मन् ! वे आपको प्रणाम क्यों न करें-आप आदिकर्ता ब्रह्मा से भी बडे़, अनन्त, देवेश, जगन्निवास, अक्षर, सत्, असत् और जो उनसे परे तत्व है, वह भी, हैं। आप आदिदेव, पुराण-पुरूष, इस विश्व के परं निधान, ज्ञाता, ज्ञेय और परंधाम है तथा अनन्तरूप, आपसे विश्व व्याप्त है। वायु, यम, अग्नि, वरुण शशी, प्रजापति, प्रपितामह इस चराचर लोक के पिता, पूज्य और सर्वश्रेष्ठ गुरू आप ही हैं। अमित प्रभाव! तीनों लोकों में अधिक क्या, कोई आपके समान भी नहीं है। अनन्त सामर्थ्य और अमित पराक्रमशाली आप सबको सम्प्राप्त हैं, अतः ‘सर्व’ है। सर्वेश! आपको सब ओर से सहस्रबार, बार-बार, नमस्कार।
इस विराट-दर्शन के पश्चात् सबके प्रति मैत्री भावना स्वाभाविक है, अतः साधक कामना करता है- मुझे सब मित्र की दृष्टि से देखें, मैं सबको मित्र की दृष्टि से देखता हूँ।
यहाँ तुलसीदास जी के शब्दों में मित्र गुणों का स्मरण वांछनीय ही है-श्रुति कहती है कि संत मित्र के गुण ये हैंः विपत्ति-काल में उसका स्नेह सौगुना होता है, वह कुपथ से हटाकर सुपथ पर चलाता है, गुण प्रकट करता है और अवगुण छिपाता है, देते-लेते समय मने में संकोच नहीं करता, बल का अनुमान करके सदा हित-साधन करता है, अपना पर्वत के समान दुःख मिट्टी के समान और मित्र का मिट्टी के समान दुःख मेरू पर्वत के समान जानता हैं। जिनकी सहज ही ऐसी मति नही है, वे शठ क्यों हठ करके मित्रता करते हैं? जो मित्र के दुःख से दुःखी होते, उनको देखने में भी बड़ा पातक है। जो सामने बनाकर मृदु वचन कहते हैं, पर पीछे अहित करते हैं, मन से कुटिल हैं- जिनके चित की गति सर्प के समान है-ऐसे कुमित्र का त्याग देने में ही भलाई है।
ऐसी मैत्री-भावना के प्रसार के लिए जीवन में ‘संतुलन’ अनिवार्य होने से साधक प्रार्थना करता है “ॐ, हम सहिष्णु बनें और सतुलित रहें। व्यक्ति और समाज के संबंध मौलिक हैं-दोनों का सम्यक् निर्वाह हो। समाज सुसंगठित हो, सामाजिक श्रम विभु बने, सब सम्पत्ति ‘रघुपति’ की हो और तदर्थ ‘यज्ञ’ ‘दान’ और ‘तप’ कार्यक्रम हो।”
प्रार्थना के साथ उसके विचार-सूत्र का मनन वाछंनीय है ही। तदुपरान्त साधक ऋग्वेद के संगठन-सूक्त का स्मरण ‘आशीर्वाद’ के रूप में करता है-साथ चलो, साथ बोलो, साथ मनन करो, पूर्वज देवताओं के समान सम्पत्ति का साथ उपभोग करों। तुम्हारी सामर्थ्य हृदय और मन संगठित हो, जिससे तुम चरम सौम्य लाभ कर सको।
अब उपासना के लिये जिस शक्ति का आवाहन किया गया था, उसका विसर्जन किया जाता है – देवि, ब्राह्मणों से अनुज्ञात, उत्तम शिखरों वाले पर्वतों के शीर्ष-भाग की भूमि पर सुख पूर्वक पधारें ।
अंत में अर्घ्य-दान के रूप में, सर्वस्व समर्पित करके, उपासक उपास्य का प्रसाद प्राप्त करता है, और अपने को कृत-कृत्य अनुभव करता है-ॐ, सहस्र किरण, तेज-पुंज, जगत्पति, दिवाकर सूर्य, भक्तिपूर्वक दिये गये अर्घ्य को स्वीकार कर मुझ पर अनुकम्पा करें।
इस प्रकार उपासना द्वारा जो ‘राम’ का जान लेता है- उसी का जीवन सार्थक है।